देहाती दुनिया: रचना और रचना प्रक्रिया
मंगलमूर्त्ति
‘देहाती दुनिया’ शिवजी का एकमात्र पूर्ण एवं प्रकाशित उपन्यास है। हिंदी के प्रथम आंचलिक उपन्यास अथवा हिंदी में आंचलिक कथा-साहित्य की मूलाकृति के रूप में ‘देहाती दुनिया’ की चर्चा अक्सर होती रही है। किंतु जब ‘देहाती दुनिया’ की रचना १९२१-२२ में हुई थी, उस समय और उसके काफी बाद तक भी कथा-साहित्य की एक परिलक्षित प्रवृत्त्ति के रूप में आंचलिकता की कहीं चर्चा नहीं थी। ऐसा नहीं लगता कि स्वयं शिवजी को कथा-साहित्य में ऐसी किसी सुचिंतित प्रवृत्त्ति का आविष्कार अभीष्ट था जिससे उपन्यास-लेखन में एक सर्वथा मौलिक विधा का सूत्रपात हो। उन्होंने पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि इस उपन्यास की रचना उन्होंने ‘अपने मन से नहीं’, अपने ठेठ देहाती मित्रों की ‘प्रेरणा’ से, और उन्हीं लोगों के ‘मनोरंजन’ के लिए की है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि ‘‘मैने यश या प्रोत्साहन प्राप्त करने के लिए यह पुस्तक नहीं लिखी है, लिखी है केवल स्वांतः सुखाय’’। उनका उद्देश्य एक ऐसा उपन्यास लिखना था जिसका परिवेश और कथासंसार ही नहीं, वरन् जिसकी भाषा भी उनके ठेठ देहाती मित्रों के जीवन के निकटतम हो। अर्थात उपन्यास की विधा में यह एक ऐसा साहसिक प्रयोग था (‘‘इस पुस्तक को लिखते समय मैंने साहित्य-हितैषी सहृदय समालोचकों के आतंक को जबरदस्ती ताक पर रख दिया था’’) जिसका एक सांगोपांग यथार्थवादी चित्रण अभिजात, सुशिक्षित नगरीय पाठक-वर्ग के मनोरंजन अथवा कुतूहल-शमन के लिए नहीं किया गया था। यह तो एक अभिनव प्रयोग था ग्रामीण जनता की भाषा में ग्रामीण जीवन की समस्याओं के विषय में उससे सुपरिचित पाठक-वर्ग का मनोरंजन और सचेतन। भविष्य के आंचलिक उपन्यासों में किसी अंचल-विशेष के आंचलिक चरित्र को यथार्थवादी स्वरूप प्रदान करने का मुख्य अवलंबन भाषा को बनाया गया, किंतु कथानक, चरित्र और घटनाओं का निरूपण-विश्लेषण बहुधा एक अभिजात, नगरीय चेतना से प्रभावित रहा। दूसरे शब्दों में आगे लिखे जाने वाले ये आंचलिक उपन्यास ज्यादातर शहर के रंगीन चश्मे से गांव के जीवन को देखने और आंचलिक भाषा के रंगों से बनी एक तस्वीर नगरीय, अभिजात पाठक-वर्ग के सामने रखने के प्रयास थे। अपने निबंध में हिंदी के प्रखर आलोचक श्री दूधनाथ सिंह ने इसी बात को रेखांकित किया है-‘‘हिंदी में इस अंतर्वस्तु और इस तरह के मुक्त शिल्प को अपनाकर उसके बाद कोई दूसरी रचना नहीं लिखी गई। जैसे शिवप्रसाद मिश्र ‘रुद्र’ की ‘बहती गंगा’ का कोई दूसरा ‘माडल’ हिंदी में नहीं है, उसी तरह ‘देहाती दुनिया’ भी अपने ढंग की अकेली औपन्यासिक कृति है।’’*१
शिवजी
गांव के लोगों को एक आइना दिखाना चाहते थे जिसमें वे लोग अपनी ही सच्ची तस्वीर देख सकें। बीसवीं सदी के प्रारंभ में गांवों को अपनी क्रूर चक्की में पीसने वाली अंगरेजों द्वारा पोषित सामंती व्यवस्था; अज्ञान , अंधविश्वास और दरिद्रता के अंधकूप में नारकीय जीवन जीने को विवश ग्रामीण जनता और नाना प्रकार की कुरीतियों से ग्रस्त देश का ग्रामीण समाज - इसी का सच्चा अक्स अपने उपन्यास के आइने में खींचना और उसे उजागर करना, ताकि उस भयावह तस्वीर को बदला जा सके, यही उद्देश्य था इस उपन्यास को लिखने का। जो बीमार हैं, उनको उनकी बीमारी का सही-सही एहसास कराना ही अभीष्ट था, और इसीलिए उन्हीं लोगों की भाषा में यह एहसास पैदा कराया जा सकता था। अपनी भूमिका में शिवजी ने लिखा है कि वह अपना उपन्यास ऐसी भाषा में लिखना चाहते थे जिसे ‘‘ठेठ-से-ठेठ देहात का एकदम अनपढ़ गंवार भी बिना किसी की सहायता के उसका एक-एक शब्द समझ ले, निरक्षर हलवाहे और मजदूर भी बड़ी आसानी से उसकी हर-एक बात को अच्छी तरह समझ जायँ।’’ भाषा यहां उस पाठक-वर्ग से सीधा संवाद स्थापित करने का माध्यम थी जिसके अनुभव-संसार का चित्रण करना थाः वह साधन थी, साध्य नहीं। आंचलिकता भाषा से सृजित नहीं हुई थी, आंचलिकता ने भाषा का सृजन किया था। भूमिका की ये पंक्तियां इस संदर्भ में उ़द्धरणीय हैं :
‘‘मैं ऐसी ठेठ देहात का रहने वाला हूँ, जहाँ इस युग की नई सभ्यता का बहुत ही धुंधला प्रकाश पहुंचा है। वहीं पर मैंने स्वयं जो कुछ देखा-सुना है, उसे यथाशक्ति ज्यों-का-त्यों इसमें अंकित कर दिया है। इसका एक शब्द भी मेरे दिमाग की ख़ास उपज या मेरी मौलिक कल्पना नहीं है |
यहाँ तक कीभाषा का प्रवाह भी मैंने ठीक वैसा ही रखा है, जैसा ठेठ देहातियों के मुख से सुना है। अपने व्यक्तिगत अनुभव के बल पर मैं इतना निस्संकोच कह सकता हूं कि देहाती लोग आपस की बातबीच में जितने मुहावरों और कहावतों का प्रयोग करते हैं, उतने तो क्या, उसका चतुर्थांश भी हम पढ़े-लिखे लोग नहीं करते।’’
इस
उपन्यास की भाषा की भंगिमा और प्रवाह लेखक के ‘दिमाग की खास उपज’ नहीं थे, वे ‘देहातियों के मुख से’ निस्सृत थे। और यहां आंचलिक शब्दावली और ध्वन्याकन से आंचलिक भाषा का सृजन नहीं किया गया था, वरन् उसके ठीक विपरीत, (पुनः श्री दूधनाथजी के शब्दों में) ‘‘ ‘देहाती दुनिया’ का रस उसमें प्रयुक्त लोक-मिथक और लोक-इतिहास का रस है जो इस उपन्यास में प्रयुक्त भाषा और संवाद और वातावरण के चित्रण के भीतर से आता है’’।
शिवजी ने आंचलिक उपन्यासों की भाषा के संबंध में ‘साहित्य’ (जन‘, १९६१) की अपनी एक महत्वपूर्ण टिप्पणी में आंचलिक उपन्यासो की ‘भाषा-संबंधी उच्छृंखला’ और ‘भाषा-शैली की विकृति’ के प्रति आंचलिक उपन्यास-लेखकों को सचेत किया था, और लिखा था कि ‘‘ऐसे लेखकों में अधिकांश बंधु कथाकार-मात्र हैं, भाषा की प्रकृति के पारखी नहीं । हिंदी की शैली में जनपदीय शब्दों को खपाने का कौशल प्रत्येक कथाकार के बूते की बात नहीं - यह बड़ी गहरी साधना का काम है, और कई उपन्यासकारों में ऐसी साधना का अभाव दीख पड़ता है। हिंदी के साथ विभिन्न आंचलिक अथवा क्षेत्रीय भाषाओं की खिचड़ी पकाकर भाषा का स्वरूप बिगाड़ना बड़ा खतरनाक काम है। हिंदी में आंचलिक शब्द, मुहावरे, कहावतें आदि खपाई जायें; पर अंधाधुंध नहीं, पहले उनकी परख हो ले, इस बात पर भी विचार हो ले कि जितनी दूर तक हिंदी की व्यापकता है, उतनी दूर तक वे चीजें टकसाली बन सकेंगी या नहीं। ...उपन्यासकार बंधुओं से हमारा नम्र निवेदन है कि वे अपने को आंचलिक भाषा का केवल ‘गढ़िया’ ही नहीं, ‘जड़िया’ भी समझने की कृपा करें’’।
जिन
दिनों (१९२४ में) शिवजी लखनऊ में प्रेमचंद की ‘रंगभूमि’ का भाषा-संशोधन कर रहे थे, वे वहीँ ‘देहाती दुनिया’ की रचना भी कर रहे थे, यद्यपि वह पांडुलिपि दंगे में वहां खो गई थी। प्रेमचंद के तीन चार उपन्यास तब तक प्रकाशित हो चुके थे। प्रेमचंद की भाषा और उनके औपन्यासिक शिल्प से शिवजी भली-भांति परिचित हो चुके थे। लेकिन ‘देहाती दुनिया’ में - भाषा ही नहीं, शिल्प, कथा-संरचना, चरित्र-चित्रण - अपने सभी पक्षों में एक स्पष्ट विलक्षणता परिलक्षित हो रही थी। इसका कारण था लेखक का विशिष्ट एवं सुचिंतित उद्देश्य - ठेठ देहात का, उसी परिवेश की भाषा में अंकित एक औपन्यासिक चित्र खींचना। इसी अर्थ में ‘देहाती दुनिया’ - ‘‘अपने ढंग की अकेली औपन्यासिक कृति है’’ (दूधनाथ सिंह)। हिंदी उपन्यास में आंचलिकता का सूत्रपात करने वाली प्रवर्त्तक कृति के रूप में लगभग स्वीकृत यह उपन्यास एक अंचल विशेष (भोजपुर अंचल) का ही नहीं, वरन् बीसवीं सदी के प्रांरभ में भारत के किसी भी गांव का मूल-चित्र अंकित करता हुआ प्रतीत होता है। थोड़ी गहराई में उतर कर देखने पर इसके कथानक के हर टुकड़े में, और प्रायः हर चरित्र में भारतीय ग्रामीण समाज की मूलाकृति की झलक मिलती है। इस अर्थ में इस उपन्यास में हमें आंचलिकता और सार्वदेशिकता का अद्भुत संयोग दिखाई देता है। जहां एक ओर इसकी भाषा इसकी आंचलिकता को रेखांकित करती है, वहीं दूसरी ओर इसका शैल्पिक एवं संरचनात्मक पक्ष इसकी सार्वदेशिकता को प्रतिष्ठित करता है।
आत्मचरित
शैली में कथित इस उपन्यास का कथाशिल्प अत्यंत मौलिक एवं प्रयोगधर्मी है। शिशु-चरित्र भोलानाथ कथानक का दृष्टिबिंदु है। रामसहर उसके ननिहाल का गांव है और उसके (अनाम) नाना जमींदार बाबू सरबजीत सिंह के दीवान थे । बाबू सरबजीत सिंह ने एक बीघा खेत के लिए ब्रह्म-हत्या की थी, और ब्रह्मदोषी होने के कारण समाज से बहिष्कृत हुए थे। उनके बेटे बाबू रामटहल सिंह का इसी कारण कहीं बिरादरी में विवाह नहीं हो पा रहा था, और घर की मजूरिन बुधिया को उन्होंने अपनी रखेलिन बना लिया था| बुधिया से उन्हें - सुगिया, बतसिया और फुलगेनिया, तीन बेटियां हुई थीं। बाद में एक गरीब बाबू साहब, मनबहाल सिंह, की नवीं बेटी महादेई से रुपये के जोर पर उनकी शादी हुई। मनबहाल सिंह ने इससे पहले भी अपनी आठ बेटियों का विवाह रुपये पर बेचकर ही किया था, जिससे वे अपना जीवन-यापन करते थे। सरबजीत सिंह के मरने पर रामटहल सिंह जमींदार हुए। उसके कुछ ही दिन बाद भोलानाथ (वाचक) के नाना भी चल बसे थे, और नानी के बुलावे पर भोलानाथ के (अनाम) पिता बाबू रामटहल सिंह की दीवानी संभालने अपना परिवार लेकर रामसहर में आकर रहने लगे।
रामटहल
सिंह की नवविवाहिता पत्नी महादेई और रखेलिन बुधिया में अब बराबर झगड़े होते रहते। उनके पुरोहित पसुपत पाड़े ब्रह्मदोष के निवारण के लिए उनकी माता से एक हजार रुपये लेकर कमरू-कमच्छा में पूजापाठ के लिए चले गये थे, और इधर पांड़े जी का लड़का गोबरधन हवेली में पूजा-पाठ की ओट में महादेई से रास रचाने लगा था। ब्रह्मपिसाच के प्रकोप से रामटहल सिंह भी बीमार रहने लगे। अवसर पाकर उनके ससुर मनबहाल सिंह बुधिया को फुसलाकर अपने यहां ले गये और उसकी आंखों में धूल झोंककर उसकी बड़ी बेटी सुगिया को एक चोरों के मेठ बूढ़े गुदरी राय के हाथ बेच दिया। बुधिया वहां से अपनी और दो बेटियों को लेकर भाग निकली और गुदरी राय के खिलाफ थाने में रपट लिखा दिया। इस काम में उसकी मदद राह में मिले बटोही, सोहावन मोदी, ने की, और उसे अपने साथ गाजीपुर ले गया, जहां उसकी मोदी की दुकान थी। बुधिया फिर उसकी के साथ वहाँ रहने लगी।
कथानक
आगे बढ़ता है। थाने की रपट के आधार पर दारोगा गुदरी राय के घर पर छापा मारते हैं जिसमें गुदरी राय मारा जाता है, और सुगिया दारोगाजी की अंकशायिनी बनती है। इधर चारों धाम की यात्रा के बाद पुरोहित पसुपत पांड़े रामसहर लौटते हैं और ब्रह्म की शांति के लिए चौरा बनाकर बराबर पूजने का विधान बताते हैं। इस बीच गांव के एक झगड़े में एक खलिहान फूँक दी गई है जिसकी तफतीश के लिए वही दारोगाजी रामसहर आये है, और वहाँ उसकी दामाद जैसी खातिर हुई है। सनीचर के दिन जबकि ब्रह्मस्थान का चौरा बनने वाला है, ठीक उससे दो दिन पूर्व अचानक गोबरधन पर ही बह्मपिसाच सवारी कस देता है, और उसका ब्रह्म झाड़ने में उसके मामा जुरजोधन तिवारी और गांव के ओझैतों की भारी दंगल होती है, जिसमें ओझैतों की अच्छी कुटम्मस होती है। उपन्यास के अंतिम परिच्छेद में वाचक अपने पिता के साथ अपने पिता के गांव के मूसन तिवारी के भतीजे की बरात में जा रहा है, जहाँ गंवई की बरात का अद्भुत चित्र दिखाई देता है, और वहां से लौटने में वाचक अपने पिता के साथ उनके अपने गांव (ददिहाल) पांच-छः दिनों के लिए जाता है। तभी वहां से चलने के दिन रामसहर का हजाम आकर
बाबू रामटहल सिंह की चिट्ठी देता है जिसमें एक सनसनीखेज खबर है कि इस बीच गोबर्धन महादेई को लेकर भाग गया है | शाम
में भोलानाथ और उसके पिता के रामसहर वापस पहुंचने पर बाबू साहब रो-रोकर बताते हैं कि कैसे गोबरधन महादेई को लेकर भाग गया।
पूरा
उपन्यास ग्यारह परिच्छेदों में बंटा हुआ है और प्रत्येक का प्रारंभ एक कहावत या सूक्ति से होता है जो उस कथा-परिच्छेद का भाव-सार प्रस्तुत करता है। प्रत्येक परिच्छेद में एक पूर्ण कहानी की अन्विति भी देखी जा सकती है, यद्यपि सभी परिच्छेद एक रस्सी की सुतलियों की तरह एक-दूसरे के साथ भली-भांति गुंफित हैं। पहले परिच्छेद में वाचक अपने ददिहाल वाले (अनाम)
गांव में बीते शैशव के मोहक चित्र उपस्थित करता है | दूसरे में, वह रामसहर के जमींदार बाबू सरबजीत सिंह की हवेली से हमारा परिचय कराता है, जो उपन्यास के कथानक का केंद्र है। तीसरे परिच्छेद में वाचक पुनः अपने गांव में बीते अपने बचपन का चित्र खीचता है, जिसके अंत में वह हमें बताता है कि वह अपने पिता के साथ अपनी ननिहाल रामसहर जा रहा है, जहां अब उसके पिता को सरबजीत सिंह के बेटे रामटहल सिंह की दीवानी संभालनी होगी । अब उसके पिता को वहीं अपनी ससुराल में रह कर वहाँ की अपनी जगह-जमीन देखनी होगी ।
इस प्रकार पहला और तीसरा परिच्छेद दूसरे परिच्छेद की मुख्यकथा से जुड़ जाते हैं। चौथे परिच्छेद में फिर दूसरे परिच्छेद की मुख्य कथा आगे बढ़ती है जिसमें रामटहल सिंह की रखेलिन बुधिया से जन्मी सुगिया अपने डाकू पति
गुदरी राय के मारे जाने पर दारोगाजी के रंगमहल को गुलजार करती है। पांचवें परिच्छेद में कथा-सूत्र पुनः वाचक भोलानाथ के ननिहाल में बीत रहे बचपन की ओर लौटता है, और रामटहल सिंह की नव-विवाहिता पत्नी महादेई और पसुपत पांड़े के बेटे गोबरधन के साथ चल रहे रास-रंग की ओर इशारा करते हुए खत्म होता है। छठे परिच्छेद में पसुपत पांड़े की चारों धाम की यात्रा का वर्णन है, किन्तु सातवें परिच्छेद में पुनः कहानी लौटकर वाचक से आ जुड़ती है जो पंचमंदिल पर होने वाले पुराण-मंथन का श्रोता ही नहीं, उससे उपजे विवाद में होने वाले माथ-फुड़ौवल और खलिहान की अगलगी का प्रत्यक्षदर्शी भी है। आठवां परिच्छेद फिर छठे परिच्छेद की अगलगी की तफतीश के लिए उन्हीं दारोगाजी के रामसहर में आने और दामाद वाली खातिर पाने का चित्र प्रस्तुत करता है। दसवें परिच्छेद में फिर छठे और आठवें की कथा का विस्तार हुआ है, जब पसुपत पांड़े के बेटे गोबरधन पर ही ब्रह्मपिशाच का दौरा आता है और ओझैतों के साथ उसके मामा जुरजोधन तिवारी का जबर्दस्त दंगल होता है। अंतिम, ग्यारहवें परिच्छेद में कथासूत्र पुनः वाचक पर केंद्रित हो जाता है जो अपने पिता के साथ अपने ददिहाल के पास के
एक दूसरे गांव की बरात से लौटकर अपने पुश्तैनी गांव आया है और वहाँ कुछ दिन रुक कर
फिर रामसहर पहुंचता है जहाँ इस सनसनीखेज खबर का खुलासा होता है कि गोबरधन महादेई को लैकर भाग गया है। इस प्रकार यह बहुत साफ है कि पूरी कथा एक मजबूत रस्सी की तरह गुंथी हुई है, जिसको बटने या गूंथने वाला उपन्यास का वाचक भोलानाथ ही है। एक गांव की कहानी पहली बार इस तरह से कहने वाले इस उपन्यास ‘देहाती दुनिया’
का शिल्प भी अगर गांव में बटी जाने वाली रस्सी की ही तरह सधा हुआ है, तो उसे शत-प्रतिशत सफल मान लेने में कोई कठिनाई नहीं है।
‘देहाती दुनिया’ अपने औपन्यासिक अनुभव एवं शिल्प में विशिष्ट है। जैसा दूधनाथ सिंह ने लिखा है-‘‘सन् १९२६ में लिखे जाने (प्रकाशित होने)
के बावजूद ‘देहाती दुनिया’ अद्भुत रूप से आधुनिक शिल्प में लिखा गया उपन्यास है। प्रेमचंद ने उस वक्त तक और उसके बाद भी इस शिल्प का प्रयोग अपने उपन्यास-लेखन में नहीं किया। ...इस तरह के समृद्ध शिल्प की हिंदी कथा-लेखन में उसके पूर्व कोई परंपरा नहीं है।’’
हिंदी
उपन्यास के विकास में ‘देहाती दुनिया’ की विशिष्टता की चर्चा भी आंचलिकता के ब्याज से ही प्रारंभ हुई| आंचलिक कथा-साहित्य का जो दौर पिछली सदी के पांचवें दशक से प्रारंभ हुआ, और उसकी समालोचना के जो नए प्रतिमान बनने लगे उन्हीं के आधार पर ‘देहाती दुनिया’ को मूल्यांकित करने के कुछ छिटफुट प्रयास भी हुए, जो पूर्णतः असंतोषजनक कहे जायेंगे ।
औपन्यासिक शिल्प की जो धारणा प्रेमचंद-युगीन उपन्यासों से निर्मित हुई थी उसे आंचलिकता के नवप्राप्त दृष्टिकोण से पुनर्परिभाषित करते हुए कुछ समालोचकों ने ‘देहाती दुनिया’ को मूल्यांकित करने का प्रयास किया। किंतु आज यह स्वीकार किया जा रहा है कि ‘‘संपूर्ण विधा-विकास को मोड़ देने वाली कृति की जैसी तीखी और बहुविध मीमांसा होनी चाहिए थी - विवेचन और मूल्यांकन होना चाहिए था, वैसा ‘देहाती दुनिया’ का नहीं हो सका है।’’ (डा. भृगुनंदन त्रिपाठी)
।*२
‘देहाती दुनिया’ में शैल्पिक शिथिलता, कथा-संघटन का बिखराव, पात्रानुकूल भाषा-वैविध्य का अभाव - या इसी तरह की कुछ और शिल्पगत कमजोरियों की कई समालोचकों ने चर्चा की है, जिसका कारण उपर्युक्त पूर्वाग्रहों से सीमित एक अनुपयुक्त समालोचनात्मक दृष्टिकोण ही है। यह समीक्षात्मक प्रतिपत्ति भी कि जिस अपूर्व, अभिनव शिल्प का प्रयोग हुआ है वह अनजाने ही हुआ है, अथवा लेखक ने सचेत होकर उसका प्रयोग नहीं किया है, क्योंकि वह परंपरागत औपन्यासिक शिल्प से भिन्न एवं सर्वथा नवीन है, युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होती। इसके विपरीत लेखक के जीवन के दो उल्लेखनीय तथ्य उसकी विकसित कलादृष्टि एवं शैल्पिक सामर्थ्य को विशेष रूप से रेखांकित करते प्रतीत होते हैं।
‘देहाती दुनिया’ के प्रथम संस्करण से पांचवें संस्करण (१९५०) तक में लेखक ने अपनी ‘भूमिका’ में यह बात दुहराई थी कि इसी तरह का एक और उपन्यास ‘हमारा गांव’ लिखने का उसका वादा और इरादा है जिसे वह पूरा करना चाहता है। यद्यपि यह इरादा तो पूरा नहीं हो सका, किंतु १९५२ में ही लेखक ने अपनी आत्मकथा के शैशवकालीन कुछ अंश ‘चुन्नू-मुन्नू’ नामक बालोपयोगी पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए, जो अब अंततः लेखक की सम्पादित आत्मकथा ‘मेरा जीवन’ के प्रारंभिक परिच्छेद के रूप में छप चुके हैं। ‘देहाती दुनिया’ के भोलानाथ के शैशव का चित्र लेखक के अपने शैशव के चित्र से (जब उसका नाम भी भोलानाथ ही था) प्रायः हूबहू मिलता है। ऐसा लेखक ने पहले और बाद में भी बिलकुल अनजाने ही किया होगा ऐसा मानने का कोई कारण नहीं दीखता।
लेखक
के जीवन के एक और तथ्य की सूक्ष्म छाया ‘देहाती दुनिया’ के कथा-शिल्प पर फैली हुई दिखाई पड़ती है, जिसे भी मात्र आकस्मिक नहीं माना जा सकता। लेखक के वंशवृक्ष का प्रारंभ लगभग अठारहवीं शती के शुरुआती दशकों में माना जाता रहा है, जब सात-आठ पीढ़ी पहले उसके वंश के एक पूर्व-पुरुष (सुथर दास) अपने माता-पिता के साथ उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के शेरपुर गांव से अपने ननिहाल उनवांस में आकर रह गये थे, क्योंकि उसके नाना को एक लड़की ही थी और उनके बाद उस
संपत्ति की देखभाल के लिए उन्होंने अपने दामाद को उपन्यासकार के गाँव उनवांस बुला लिया था ।
उसी तथ्य का यह पक्ष भी यहां प्रासंगिक है कि लेखक के पूर्वजो ने स्थानीय ज़मींदारों की दीवानगिरी से ही अपनी भू-संपत्ति अर्जित की थी। इन सभी तथ्यों के आलोक में ‘देहाती दुनिया’ की कथा-संरचना एवं उसके शिल्प को देखने पर यह मानना संभव नहीं लगता कि लेखक ने इस उपन्यास की कथा-संरचना और शिल्प-प्रयोग में अनायास ही ऐसी संश्लिष्टता एवं सूक्ष्मता अर्जित कर ली है। यदि ‘देहाती दुनिया’ स्मरण-शिल्प शैली में लिखा हुआ हिंदी का पहला उपन्यास है, तो इन तथ्यों के आलोक में यह मानना भी कठिन है कि अपने औपन्यासिक शिल्प में इतना संशिलष्ट और कलात्मक प्रयोग लेखक ने अनजाने या अनायास ही किया है। प्रारंभ से अंत तक यह उपन्यास एक सुचिंतित, कसे हुए शिल्प में रचित उत्कृष्ट कथा-कृति है जिसमें लेखक ने ठेठ देहात के औपन्यासिक चित्र को आत्यंतिक कलात्मकता से उकेरने का अपना लक्ष्य पूरी तरह प्राप्त कर लिया है।
‘देहाती
दुनिया’ : पाठानुशीलन – २
[ आ. शिवपूजन
सहाय की जन्म-शती के प्रसंग में उनके नाम से जिस ‘स्मारक न्यास’ की स्थापना हुई थी
उसके द्वारा १९९४ में ‘देहाती दुनिया:पुनर्मूल्यांकन’ समालोचनात्मक पुस्तक
प्रकाशित हुई थी जिसमें – परमानन्द श्रीवास्तव, दूधनाथ सिंह,रमेश
उपाध्याय,खगेन्द्र ठाकुर, शैलेश्वर सती और मंगलमूर्ति के समीक्षात्मक लेख थे
और परिशिष्ट में यह सामग्री थी – १.’आंचलिकता की धूम’ (शिव. की टिप्पणी), २.’देहाती
दुनिया:दोनों पाठों की तुलना, ३. ‘देहाती दुनिया’ के लिए प्रस्तावित विषयों की
सूची, १९२२, तथा ४. स्फुट टिप्पणियाँ, जिनमें ‘देहाती दुनिया’ शीर्षक से सम्बद्ध
१९१६ और १९४३ की डायरियों के कुछ उद्धरण थे, तथा पुराने संस्करणों की भूमिकाओं के
कुछ अंश थे|]
‘देहाती दुनिया’ का पहला मुद्रित पाठ (जिसके कुछ ही फर्मे छप सके थे) आचार्य शिवपूजन सहाय के संग्रहालय में उपलब्ध हैं । यह पहला पाठ कलकता के भारती प्रेस में छपा था जिसके संस्थापक थे पं. रामगोविंद त्रिवेदी। शिवजी की ही भांति त्रिवेदीजी भी १९२१ के लगभग कलकता पहुंचे थे। दोनों एक ही इलाके के आसपास के गाँवों के रहने वाले थे। कलकत्ते की उन दिनों की साहित्यिक मंडली में भोजपुरी-भाषियों की एक बड़ी जमात वहाँ मौजूद थी। गाँव-जवार की बातें अक्सर हुआ करती थीं। त्रिवेदीजी ने नया-नया प्रकाशन व्यवसाय शुरू किया था| उन्होने शिवजी से देहात के जीवन पर एक उपन्यास लिखने का सुझाव दिया | अपने संस्मरण में उन्होंने लिखा है -
‘‘एक
दिन मैंने कहा, देहात के आप इतने भक्त हैं, तो देहात का सच्चा चित्र दिखाने और यथातथ्य संस्कृति तथा सभ्यता बताने वाली एक पुस्तक लिखिए; मैं उसे प्रकाशित करने को तैयार हूँ ।... निश्चय किया गया - पुस्तक का नाम ‘देहाती दुनिया’ रखा जाय*३ । सामग्री जुटाई जाने लगी। देहात में प्रचलित अशुद्ध संस्कृत और हिंदी के पद्य, कहावतें, उदाहरण आदि एकत्र कर मैंने भी उन्हें दिये। उन्होंने बड़ी योग्यता से ग्रंथ लिखना प्रारंभ किया। एक-एक फार्म लिखकर देते जाते थे और मैं ५००० की संख्या में छपाता जाता था। पांच फार्म छप जाने के बाद शिवजी लखनऊ चले गये’’ ।*४
यही
पांच छपे फर्मे शिवजी के संग्रहालय में उपलब्ध हैं। पर १९२२ की बात १९६३ में लिखते हुए त्रिवेदीजी की स्मृति ने उनका साथ नहीं दिया। इस प्रथम पाठ के कुल मुद्रित पृष्ठ १९२ हैं -
डबल क्राउन आकार में। सोलह पेजी फर्मो के हिसाब से यह कुल बारह फर्में हैं। यद्यपि परिच्छेद ठीक पांच ही हैं। त्रिवेदीजी की स्मृति में परिच्छेदों की जगह फर्मों ने ले ली थी | इन
१९२ पृष्ठों में भी संग्रहालय में प्रारंभ के ३४ पृष्ठ तथा फिर पृष्ठ ४७-४८ नहीं हैं। पृष्ठ ३५ के माथे की पहली लाइन इन शब्दों से शुरू होती है- “अपनी दाढ़ी या मूँछ हमारे कोमल गालों में गड़ा देते थे...’’। शिवपूजन रचनावली’ (१) वाले पाठ में, जिसे हम इस उपन्यास का अंतिम एवं स्वयं लेखक द्वारा संपादित प्रामाणिक पाठ (अंपा ) मानेंगे, यह पंक्ति उपन्यास के दूसरे पृष्ठ (वहाँ पृ. २६८) में ऊपर ही मिलती है। स्पष्ट है कि प्रथम पाठ (प्रपा )
में उपन्यास पृ. ३३ से शुरू हुआ होगा, और १ से ३२ पृष्ठों में प्रारंभिक विविध सामग्री-लेखक और प्रकाशक के वक्तव्य आदि रहे होंगे।
प्रपा
में १९२ पृष्ठ पर कथा वहां आकर खत्म हो जाती है जहाँ पसुपत पांडे के साले जुरजोधन तिवारी गांव के झूठे ओझैतों की कुटम्मस पूरी कर देते हैं। इस पाठ में यह पांचवे परिच्छेद-‘ब्रह्मपिशाच का देवघर’-का अंत है, और निश्चय ही इस पाठ का मुद्रण यहीं तक हुआ था। इस पाठ में जो पांच परिच्छेद हैं, वे हैं : (१)
‘माता
का अंचल’ (२) ‘बुधिया का भाग्य’ (३) ‘गोबरधन का कच्चा चिट्ठा’ (४) ‘दारोगाजी का चोर-महल’ और (५) ‘ब्रह्मपिशाच का देवघर’। इनमें परिच्छेद- १,२ और ४ की संरचना अंपा में
कमोबेश अपरिवर्तित है। परि.३ इस प्रपा में
‘गोबरधन
का कच्चा चिट्ठा’ शीर्षक से शुरू होता है, जिसके नीचे यह कहावत है” – “जाके घर में नौलख गाय ! सो क्या छांछ पराई खाय” |
किन्तु वस्तुतः प्रपा में
इस परिच्छेद की कथा इन शब्दों से प्रारम्भ होती है – “ माता के अंचल से निकल कर,
दूसरे दिन प्रातः काल ...”| रचनावली वाले अंतिम पाठ (अंपा ) में इन पंक्तियों से शुरू होने वाले परि.
३ का शीर्षक है ‘ननिहाल का दाना-पानी’, जिसके नीचे एक नई लोकोक्ति है- ‘‘जो नहि जाय कबो ननिऔरा। सो गदहा हो या गोबरौरा।’’ वस्तुस्थिति यह है कि प्रपा का
परि.३, अंपा में
तोड़कर दो परिच्छेदों में बाँट दिया गया है। अंपा में
ये दो परिच्छेद हैं, (३) ‘ननिहाल का दाना-पानी’ और (५) ‘गोव़र्द्धन का कच्चा चिट्ठा’। अर्थात अंपा में
उपन्यासकार ने प्रपा के
परि.३ को दो अलग-अलग हिस्सों में बाँट दिया है, और उन दोनों के बीच परि.४ (‘दारोगाजी का चोर-महल’) को डाल दिया है। यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण संरचनात्मक परिवर्त्तन है। प्रपा में
पहले ‘गोबरधन का कच्चा चिट्ठा’ के बाद ‘दारोगाजी का चोरमहल’ वाला परिच्छेद रखा गया था, किंतु अंपा में
‘गोबरधन
का कच्चा चिट्ठा’ के प्रथमांश को ‘ननिहाल का दाना-पानी’ शीर्षक से नये परिच्छेद के रूप में दिया गया, तथा उसके उत्तरांश को
‘दारोगाजी
का चोर-महल’ के बाद मूल शीर्षक ‘गोवर्द्धन का कच्चा चिट्ठा’ के अंतर्गत दिया गया। कथानक (प्लाट)-संरचना की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण परिवर्तन है।
इसी प्रकार प्रपा का
परि.५. ‘ब्रह्मपिशाच का देवघर’ भी एक काफी लंबा परिच्छेद है जिसे अंपा में
तोड़कर तीन परिच्छेदों- (६) ‘चारों धाम’ (८) ‘पांडेजी का प्रपञ्च’ तथा (१०) ‘ब्रह्मपिशाच का देवघर’ में बाँट दिया गया है, और उनके बीच तीन बिलकुल नये परिच्छेद (जो प्रपा में
थे ही नहीं) जोड़ दिये गये हैं: (७) ‘रंग में भंग’ (९) ‘मंहगे चने’ तथा (११) ‘नमक का बदला’। ध्यान देने पर यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि इस मौलिक एवं नूतन परिवर्तन से वाचक और उसके परिवेश के दुहरे कथासूत्र की समानांतरता उपन्यास को एक सुचिंतित शैल्पिक रचाव-कसाब प्रदान करती है (जिसकी चर्चा विस्तार से ऊपर की गई है)।
इन तथ्यों के आलोक में अब हम एक बार फिर इस उपन्यास की रचना के इतिहास पर दृष्टिपात करें। प्रथम पाठ के मुद्रण के बाद शिवजी लखनऊ चले गये। त्रिवेदीजी ने अपने संस्मरण में शिवजी के जिन पत्रों को उद्धृत किया है उनसे पता चलता है कि लखनऊ में भी ‘देहाती दुनिया’ की रचना का काम नवंबर, १९२४ तक तो बहुत आगे नहीं बढ़ा था। शिवजी ने २१/११/२४ के अपने पत्र में लखनऊ से त्रिवेदीजी को लिखा- ‘‘मैं शीघ्र ही कलकता आता हूँ। वही आने पर ‘देहाती दुनिया’ में प्रतिभा काम करेगी। यहाँ तो डर के मारे..... बंद है’’। शिवजी अप्रिल ’२४ में कलकते से लखनऊ गये थे और सितंबर-मध्य में भयकर दंगे के बीच लखनऊ से भागे थे। बीच के इन्हीं लगभग पांच महीनों में शिवजी ने ‘देहाती दुनिया’ की रचना के काम को जितना भी आगे बढ़ाया होगा, पर जब वे भागे तब- ‘‘वहाँ जो कुछ लिखा, सब वहीं के ढंगे में खो दिया। इस प्रकार आधा से अधिक और इसका सबसे अच्छा अंश हाथ से निकल गया। यदि वह अंश भी छप गया होता तो इससे दुगुने आकार की पुस्तक होती....’’। (भूमिका,प्रथम संस्करण,१९२६)
जब
अंततः यह उपन्यास १९२६ में शिवजी के कलकते से काशी आ जाने के बाद छपा, तब उसकी भूमिका में उपर्युक्त पंक्तियां छपीं। उसी भूमिका में आगे शिवजी ने लिखा-‘‘मैं काशीश्वर विश्वनाथ की शरण में आकर पहले के छपे हुए अंश के बाद का हिस्सा लिखने लगा और शुरू से पुस्तक छपने लगी।’’ स्पष्ट है कि प्रथम मुद्रित पाठ के बाद लखनऊ में जो कुछ भी लिखा गया उसके खो जाने के बाद लगभग दो साल तक इस उपन्यास पर कोई काम नहीं हुआ। फिर मई, १९२६ में शिवजी जब अंततः काशी चले आये, उसके बाद ही प्रथम पाठ का परिशोधन-संवर्द्धन करते हुए, उन्होंने उसके परिच्छेदों को तोड़कर उनको नये क्रम से सजाया तथा उनमें तीन बिलकुल नये परिच्छेद ७ , ९ और ११जोड़े।
अब विचारणीय यही है कि लेखक की भूमिका के वक्तव्य को ध्यान में रखते हुए, और दोनों उपलब्ध पाठों पर दृष्टि रखते हुए, क्या सचमुच ऐसा है कि लेखक के कथनानुसार लखनऊ में रचित जो अंश ‘इसका सबसे अच्छा अंश’ था, जिसके छप जाने से उपन्यास का आकार दुगुना हो जाता, उसके खो जाने से उपन्यास (अंपा ) की कथा-वस्तु अथवा कथा-संरचना किसी हद तक ढीली, कमजोर या क्षतिग्रस्त हो गई है? शिवजी ने उसी भूमिका में लिखा है कि पहली बार के छपे हुए अंश के बाद, ‘‘मुझे अवकाश ही नहीं मिला कि आगे लिखूं। जब मैं कलकता से लखनऊ के ‘माधुरी’- कार्यालय में गया, तब अवकाश के समय लिखने लगा।’’ स्पष्ट है कि लखनऊ में भी उन्होंने प्रपा के
बाद का अंश ही लिखा था, उपन्यास की मूल कथा-संरचना में कोई परिवर्तन नहीं किया था, बल्कि कथानक की नींव जितनी पड़ चुकी थी, अब उसी पर ऊपरी किता बनाना था, जिसे लखनऊ में भी वे पूरा नहीं बना पाए
थे | उन्होंने अपने पत्र में ऊपर स्वीकार किया है कि ‘देहाती दुनिया’ को पूरा करने का काम कलकता लौटने पर ही हो सकता था। यह अनुमान सर्वथा असंगत नहीं माना जायेगा कि लखनऊ में शिवजी ने प्रपा को
प्रारंभ से पुनः संवारने या फिर से लिखने का काम भी किया हो सकता है, जैसा अंततः काशी आने के बाद भी उन्होंने किया था। प्रपा के
बाद का अंश भी उन्होंने लखनऊ में लिखा होगा (और इसीलिए उस खोई पांडुलिपि के वृहद् आकार की चर्चा असंगत नहीं प्रतीत होती), पर यह मानने का कोई कारण नहीं दिखता कि उस लुप्त पांडुलिपि का उत्तरांश बाद के पाठ (अंपा )
में जोड़े गये तीन परिच्छेदों से ‘सबसे अच्छा’ अनिवार्यतः रहा हो।
यह
तो निश्चित है कि प्रपा का
जितना अंश अंपा में
संशोधित-परिवर्द्धित होकर पाठ-तुलना के लिए उपलब्ध है, उसमें लेखक को जितना भी कलात्मक परिवर्तन करना अभीष्ट था, वह हमारे सामने है। प्रश्न केवल यही है कि अंपा में
जो तीन नये परिच्छेद जोड़े गये हैं, क्या वे केवल इस कारण कमजोर या अपर्याप्त माने जा सकते हैं, क्योंकि लेखक ने अपने वक्तव्य में किसी हद तक इस ओर इशारा किया है? विस्तृत आकार एवं ‘सबसे अच्छा’ रूप का जो संकेत लेखक ने अपनी भूमिका में दिया है, यदि हम उसपर विश्वास करके इस उपन्यास के (लखनऊ में लिखे गये) किसी ऐसे ही रूप की कल्पना करें जिसमें संशोधित-परिवर्द्धित सामग्री परिमाण और गुणवत्ता, दोनों ही में अधिक होगी, तो कथानक का स्वरूप कितना भिन्न हो सकता था, नये कितने चरित्र या कितनी और घटनाएं उसमें शामिल की जा सकती थीं? गुणवत्ता के दृष्टिकोण से भी दोनों उपलब्ध पाठो में तुलना के बाद जितनी उत्कृष्टता उपलब्ध दृष्टिगोचर होती हैं, उससे अधिक कितनी उत्कृष्टता उस लुप्त पांडुलिपि में संभाव्य थी जिसकी कमी अब हम महसूस कर सकते हैं?
लारेंस ने आगाह किया था कि भरोसा कहानी पर करें, कहानीकार पर नहीं। शिवजी ने ‘देहाती दुनिया’ के विषय में उसके विभिन्न संस्करणों की भूमिकाओं में जो बातें कहीं है, उससे शायद एक कुहासा या छद्मावरण ही तैयार करने की लेखक की मंशा रही हो, जिससे ‘‘साहित्य हितैषी सहृदय (!) समालोचकों के आतंक’’ से उपन्यास को बचाया जा सकता हो। स्मरणीय है कि पहले संस्करण की यह भूमिका १९२६ की है, और ये पंक्तियां भी समकालीन समालोचकों के प्रति ही निवेदित हैं। अपनी सर्वोतम कहानी ‘कहानी का प्लाट’ में तो लेखक ने यह युक्ति कहानी के शिल्प में ही संपृक्त कर दी थी। आश्चर्य तो तब होता है जब हिंदी कथालोचन के अपेक्षया अधिक विकसित हो जाने पर पचास और साठ के दशक में भी लेखक के इन्हीं प्रगल्भोक्तियों ने ज्यादातर समालोचकों को अंधेरे में तीर छोड़ने के लिए विवश कर दिया।
शिवजी के संग्रहालय में ‘देहाती दुनिया’ से संबद्ध एक पन्ना और उपलब्ध है जिस पर १९ विषयों की एक सूची शिवजी की हस्तलिपि में अंकित है, जिन विषयों का समावेश शिवजी अपने उपन्यास में करना चाहते थे। यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज है, जिससे यह पता लगता है कि शिवजी ने कितना कच्चा माल इस उपन्यास को गढ़ने के लिए जमा किया था, और जितना कच्चा माल उन्होंने काम में लाने से छोड़ दिया उसकी गुणवत्ता क्या थी। यदि हम मान लें कि लखनऊ में लिखे गये पाठ में ज्यादातर वैसे ही कच्चे माल का उपयोग किया गया था (जिसे बाद में काम में नही लाया गया)- यद्यपि यह एक लगड़ा अनुमान ही होगा- तो लेखक के भूमिका वाले वक्तव्यों का कथानुशीलन की दृष्टि में बहुत महत्व नहीं लगता। जिस पन्ने पर यह सूची अंकित है उसपर ‘सुलभ-ग्रंथ-प्रचारक-मंडल, १३ शंकर घोष लेन, कलकता’ लेटरहेड छपा हुआ है। निश्चय ही यह सूची तब की है जब शिवजी बालकृष्ण प्रेस में महादेव प्रसाद सेठ के साथ रहते थे, और ‘मतवाला’ का प्रकाशन अभी शुरू नहीं हुआ था- अर्थात, १९२२ में, जब उपन्यास का प्रथम पाठ लिखा जा रहा था। इसी आधार पर यह मानना युक्तिसंगत होगा कि लखनऊ जाने पर भी शिवजी के मानस में कथानक का मूल-स्वरूप यही रहा होगा। क्योंकि अंततः काशी में अंतिम रूप से लिखे जाने के समय भी यह मूल स्वरूप बहुलांशतः अपरिवर्त्तित ही रहा।
उपन्यास के दोनों उपलब्ध पाठों पर विस्तार से विचार करने का यह अवसर नहीं है, किंतु पाठांतर से रचना में किस हद तक उत्कृष्टता उपलब्ध हुई है इसका एक जायजा (परिशिष्ट में प्रकाशित नमूने से) लिया जा सकता है। मोटे तौर पर जो परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं, वे हैं-
1. परिच्छेदों का नया
विभाजन एवं
क्रम-परिवर्तन (उपर्युल्लिखित)
2. तीन नये परिच्छेदों
की रचना
एवं उनका
कथानक में
समायोजन (उपर्युल्लिखित)
3. यथास्थान नये अंशों
का जुड़ाव
(देखें परिशिष्ट
में प्रकाशित
पाठ-तुलना की
पाद-टिप्पणी)
4. यत्र-तत्र एकाधिक
वाक्यों का
जुड़ाव (देखें, वहीं)
5. कुछ शब्दों/वाक्योंशों को हटाना
या बदलना
(देखें, वहीं)
अंतिम
तीनों प्रकार के परिवर्त्तनों का एक जायज़ा परिशिष्ट में दिये गये तुलनात्मक पाठ से मिलेगा। प्रपा और
अंपा
के
उपलब्ध पाठों का विस्तृत तुलानात्मक विश्लेषण करने पर निश्चय ही इस उपन्यास की कथा-संरचना, भाषा-शैली, विषय-वस्तु एवं शिल्प से जुड़े अनेक प्रश्नों का समाधान संभव होगा। किंतु यह एक गहन पाठांतर-शोध का कार्य है जिससे (विशेषतः इस उपन्यास के संदर्भ में) कथालोचन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण निष्कर्ष सामने आ सकते हैं, और आशा है निकट भविष्य में यह कार्य किसी समर्थ शोधप्रज्ञ विद्वान द्वारा पूरा किया जा सकेगा।
टिप्पणियाँ
१. १. ‘देहाती दुनिया’: एक अमर कृति . ले. दूधनाथ सिंह ; ‘देहाती दुनिया’:
पुनर्मूल्यांकन, [‘दे.दु.पु.’ ] प्रका. आ. शिवपूजन सहाय स्मारक न्यास,
१९९४ | |(यह पुस्तक सीमित संस्करण में शती-जयंती के समय छपी थी | इसका नवीन परिवर्द्धित संकरण न्यास द्वारा
शीघ्र प्रकाश्य है |)
२. २. ‘संक्रांति के लेखक शिवपूजन सहाय’, ले. भृगुनंदन त्रिपाठी, आ. शि. सहाय
शती-जयन्ती व्याख्यान, १९९३,प्रका. बिहार राष्ट्र-भाषा परिषद्, पटना |
३. ३. देखें : ‘दे.दु.पु.’ पृ. ५९ | शिवजी ने अपनी १९१६ की डायरी में
लिखा है – “अपने जीवन की कथा लिखने से बड़ा रोचक उपन्यास तैयार हो जायेगा (६/८)|...’देहाती
दुनिया’ नामक एक बहुत बड़ा और समालोचनात्मक लेख लिखूंगा जिसमें देहाती कुरीतियों का
वर्णन-सम्मार्जन रहेगा और सामजिक संस्कारों पर विवेचनपूर्वक विचार फैलाया जायेगा |
हो सका तो इस विषय की एक पुस्तक ही लिखूंगा (३१/१०)| इससे पूरी तरह प्रमाणित है कि
‘देहाती दुनिया’ पुस्तक-लेखन के बहुत पहले का निश्चित किया हुआ शीर्षक था |
४. ४. ’साहित्य’,
शिवपूजन स्मृति अंक,
पृ.९९ | बाद में १९२६ में ‘देहाती दुनिया’
पुस्तक,
भंडार,
लहेरियासराय से प्रकाशित हुई,
तब तक वह दुबारा लिखी जा चुकी थी, और शिवजी की देखरेख में काशी के ज्ञानमंडल प्रेस में मुद्रित
हुई थी। पुस्तक भंडार से इसके चार संस्करण प्रकाशित हुए (यद्यपि पुनर्मुद्रण तो अनेक हुए थे) और पाँचवा संस्करण १९५० में पं. रामदहिन मिश्र की बाल-शिक्षा-समिति,
पटना से प्रकाशित हुआ। किंतु १९२६ वाला पाठ ही बाद में भी लगभग
यथावत् छपता रहा,
तथा यही पाठ अंतिम रूप से शिवजी की देखरेख में ‘शिवपूजन रचनावली’
(१) में १९५६ में बिहार राष्ट्रभाषा परिपद से छपा। (यद्यपि इस अंतिम पाठ में भी एकाध शब्दों की भूल रह गई थी जिसे
अब पुस्तक के नये संस्करण में ठीक कर दिया गया है। (त्रिवेदीजी वाले इस संस्मरण में
‘देहाती दुनिया’
के इस प्रथम पाठ के प्रकाशन से संबद्ध सर्वाधिक प्रामाणिक सूचनाएं
उपलब्ध हैं।)
© आ.
शिवपूजन सहाय स्मारक न्यास
द्रष्टव्य : डा. दूधनाथ सिंह का ‘देहाती दुनिया’ पर लेख इसी ब्लॉग पर पढ़ें : ११ जन. २०२०
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