श्री दूधनाथ सिंह की पुन्य-तिथि पर स्मृति-स्मरण
देहाती दुनिया : एक अमर कृति
दूधनाथ
सिंह
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वास्तव
में
‘देहाती दुनिया’
में
चित्रित
जीवन
गांधीजी
द्वारा
सत्याग्रह
अहिंसा
आन्दोलन
के
चलाये
जाने
के
पूर्व
सन्
१९०० के
आसपास
का
जीवन
है।
उपनिवेशवादी
सरकार,
देशी
सामन्तों
और
पंडे-पुरोहितों
द्वारा
वह
मर्दित
दलित
जीवन
है
जिसके
लिए
भारतेन्दु
ने
बहुत
पहले
कहा
था-
कठिन
सिपाही
द्रोह अनल
जा जल-बल
नासी।
उन्हीं
भारतवासियों
का
चित्रण
इस
उपन्यास
का
उद्देश्य
है।
वास्तव
में
‘देहाती दुनिया’
का
रस
उसमें
प्रयुक्त
लोक-मिथक
और
लोक
इतिहास
का
रस
है।
और
यह
रस
बाबू
शिवपूजन
सहाय
द्वारा
इस
उपन्यास
में
प्रयुक्त
भाषा
और
संवाद
और
वातावरण
के
चित्रण
के
भीतर
से
आता
है।
अब
इस
तरह
की
भाषा
का
प्रयोग
हिन्दी
गद्य
में
लगभग
दुर्लभ
है।
मुहाविरों,
कहने
की
भंगिमाओं,
स्वरचित
या
स्वप्रक्षेप
से
मुक्त
सधुक्कड़ी
कविताओं
से
इस
गद्य-भाषा
का
तेवर
उभरता
है।
आज
हमारे
अधिकांश
गद्य-लेखक,
कथाकार
यह
नहीं
जानते
कि
हमारी
साधारण
जनता
पढ़े-लिखे
लोगों
से
अधिक
जानदार,
सरस,
हास्य-व्यंग
से
पूर्ण,
कवित्व
से
भरपूर
और
सार-संक्षेप
वाली
भाषा
का
प्रयोग
अपने
दैनन्दिन
जीवन
में
करती
है।
बाबू
शिवपूजन
सहाय
एक
जगह
इस
उपन्यास
की
भूमिका
में
भाषा
पर
टिप्पणी
करते
हुए
लिखते
हैं,
‘‘भाषा का
प्रवाह
भी
मैंने
ठीक
वैसा
ही
रखा
है
जैसा
ठेठ
देहातियों
के
मुख
से
सुना
है’’।
उनका
यह
कथन
शत
प्रति
शत
सच
है।
अगर
इस
छोटे
से
उपन्यास
से
सिर्फ
मुहाविरों
को
छाँटा
जाय
तो
एक
अच्छा
खासा
मुहाविरा
कोश
तैयार
हो
सकता
है।
और
ऐसा
भी
नहीं
है
कि
ये
मुहाविरे
जानबूझकर,
जबर्दस्ती
लेखक
ने
भाषा
पर
चिपकाये
हों।
नहीं,
बल्कि
आश्चर्य
होता
है
कि
हमारी
सामान्य
जनता
कितने
खूबसूरत,
रंगारंग
और
समृ़द्ध
गद्य
का
उपयोग
लगातार
अपनी
बोलचाल
की
भाषा
में
करती
है।
और
यह
भी
आश्चर्य
होता
है
कि
इस
गद्य-भाषा
को
हिन्दी-गद्य
में
क्यों
नहीं
सुरक्षित
रखा
गया।
लगता
है
कि
हमारी
जनता,
हमारे
लेखकों
से
कहीं
ज्यादा
संवेदनशील
और
साहित्यिक
है,
और
सच
पूछिये
तो
इसी
भाषा
का
इस्तेमाल
करके
हम
अपनी
रचनाओं
को
सर्वसाधारण
तक
पहुँचा
सकते
हैं।
इसके
लिए
एक
उदाहरण
देखिये:
‘‘जब
तक
हाड़
में
हरदी
नहीं
लगी
थी
तब
तक
जो
कुछ
रही
सो
बुधिया।
और
अब
मुँहझौंसे
मनबहाल
की
बेटी
के
सिवा
किसी
को
पासंग
के
बराबर
भी
नहीं
जानते।
जबसे
वह
उनके
घर
में
आई
है,
तब
से
तो
मैं
उनका
चौखट
लाँघने
भी
नहीं
गयी
हूँ,
और
न
कभी
जाऊँगी।
सुना
है
कि
नहीं,
आते
ही
सास
से
झोंटा-झोंटी
होने
लगी।
चार
दिन
की
बहुरिया,
मगर
जो
कोई
भी
आँगन
में
चला
जाता
है,
उसी
के
साथ
गपड़चौथ
चालू।
भिखमंगे
बाप
की
बेटी,
बड़े
घर
उतरते
ही
उतान
हो
गयी।
मगर
जब
ब्रह्मपिचास
नचाने
लगेगा
तब
सब
गुमान
और
टिमाक
तेलहंडे
पर
चला
जायेगा।
जानती
हो,
दूध
पीने
के
लिए
नयी
गाय
खरीदी
गयी
है।
तेल
लगाने
के
लिए
नाइन,
पान
लगाने
के
लिए
तमोलिन-मकई
के
खेतों
में
कौवा
उड़ाने
वाली
के
लिए
इतना
इन्तजाम।
छछुन्दर
के
सिर
में
चमेली
का
तेल।
जाँता
पीसते,
धान
कूटते
हाथ
में
घट्ठे
पड़
गये
और
अब
उबटन
और
अतर-फुलेल
लगाने
लगी।
ठीक
है,
जिसको
पिया
चाहें
वही
सुहागिन।
न
जाने
तुमसे
कैसे
देखा
जाता
हैं।
मैं
होती
तो
इसी
पर
आग
बो
देती।
बाबू
साहब
ने
तुम्हारी
इज्जत
भी
बिगाड़ी,
जब
तक
जी
में
आया
चैन
किया
और
जब
परिवरिश
करने
का
दिन
आया
तो
लाकर
छाती
पर
एक
पत्थर
की
मूरत
बैठा
दी।
तन
का
परदा
भी
गया,
मिट्टी
भी
खराब
हुई।
दस
दिन
बाद
ये
लड़कियाँ
छाती
पर
पहाड़
हो
जायेंगी,
तब
तुम
हाथ
मल-मल
कर
याद
करोगी
कि
सोनिया
ने
जो
कहा
था,
सो
ज्यों
का
त्यों
आगे
आया।’’
एक
और
उदाहरण
देखिये:
‘‘महाराज, हाथ
जोड़ती
हूँ,
ऐसी
अच्छी
साइत
में
चौरा
बनवाइए
कि
ब्रह्मपिसाच
घर
में
उत्पात
मचाने
न
आवे।
एक
तो
लड़के
के
रोगी
रहने
से
मेरी
भूख-प्यास
बिला
गयी
है,
दूसरे
पतोहू
को
भी
मति-भरम
हो
गया
है।
डाइन-चबाइन
बुधिया
ने
मेरा
सोने
का
घर
माटी
कर
दिया।
ऐसा
रँड़हो-पुतहो
हुआ
कि
मेरा
आँगन
भठियारिन
का
घर
हो
गया।
मेरी
बड़ी
हेठी
हुई,
मैं
तो
कीच
में
गड़
गयी।
बबुआ
कुछ
बोले
नहीं,
बुधिया
बाघिन
बन
गयी.....।’
सम्पूर्ण
उपन्यास
ऐसे
ही
बोलचाल
के
गद्य
में
लिखा
गया
है। सवाल
यह
उठता
है
कि
‘देहाती दुनिया’
में
चित्रित
जीवन-दर्शन
क्या
है?
क्या
यथार्थ
का-प्रकृत
यथार्थ
का
यथावत
चित्रण?
या
कुछ
और
बाबू
शिवपूजन
सहाय
एक
जगह
उपन्यास
की
भूमिका
में
लिखते
हैं:
‘‘यह पुस्तक
मैंने
जिन
लोगों
के
लिए
लिखी
है,
वे
बेचारे
यह
नहीं
समझते
कि
साहित्यिक
सहृदयता
क्या
चीज
है।
वे
उपन्यास
पढ़ते
खूब
हैं,
पर
उसका
लक्षण
या
गुण-दोष
नहीं
जानते।
इसलिए
मैंने
पहले-पहल
इस
रूप
में
उन्हीं
लोगों
के
लिए
कुछ
लिखना
पसन्द
किया-
उन्हीं
लोगों
की
प्रेरणा
से।’’
इस
वक्तव्य
में
एक
बात
साफ
है;
और
वह
यह
कि इस
पुस्तक
का
लक्ष्य
जन-साधाण
की
समस्याओं
से
उसी
जन-साधारण
को
अवगत
कराना
है।
अक्सर
हमारे
लोग
अपने
नारकीय
जीवन
का
सचेत-स्तर
पर
सामना
करना
नहीं
चाहते।
वे
ऐसी
किताबे
पढ़ते
हैं
जो
उन्हें
प्रतिदिन
के
नरक
से
दूर
ले
जायँ।
यह
जो
अपने
ही
जीवन
से
पलायन
है
वह
हमारी
जनता
को
अपनी
समस्याओं
को
समझने-बूझने,
उनका
विश्लेषण
करने
और
अपना
दुख-दर्द
दूर
करने
के
लिए
एक
निर्णायक
कदम
उठाने
से
दूर
ले
जाता
है।
हमारे
लोग
इस
तरह
काहिल,
भाग्यवादी
और
निष्क्रिय
होते
जाते
है।
उनका
ऐसा
होना
सामन्ती
और
शोषक
शक्तियों
को
मदद
पहुँचाता
है।
बाबू
शिवपूजन
सहाय
का
यह
उपन्यास
सर्वसाधारण
की
समस्याओं
से
सर्वसाधारण
को
जोड़ने
का
प्रयत्न
करता
है।
यह
अपने
आप
में
सम्भवत:
एक
लेखक
की
सबसे
बड़ी
उपलब्धि
है।
जमींदार
रामटहल
सिंह
के
शोषण,
अत्याचार,
पसुपति
पाँड़े
द्वारा
पुरोहिती
के
ढोंग
से
लूटपाट
की
पारम्परिक
व्यवस्था
का
घिनौना
चित्रण,
स्त्रियों
की
व्यथा,
गुदरी
राय
जैसे
जालिम
लोगों
का
उपनिवेशवादी
पुलिस
से
भिड़न्त,
पुलिस
प्रशासन
द्वारा
हमारे
ग्रामीण
जनता
पर
ढायी
जाने
वाली
तबाही -
इस
सब
कुछ
से
अपनी
जनता
को
परिचित
कराने
का
मतलब
है
इन
जुल्मों
के
प्रति
जनता
का
देर-सबेर
सचेत
होना
और
इन्हें
दूर
करने
की
पहलकदमी
करना।
जब
लोग
इस
कथाकार
से
यह
कहते
हैं
कि,
‘‘क्या तुम
कोई
ऐसी
पुस्तक
नहीं
लिख
सकते,
जिसके
पढ़ने
में
हम
लोगों
का
दिल
लगे’’ -
तो
इसके
जवाब
में
कथाकार
कोई
थोथी
मनोरंजन
की
पुस्तक
अपने
पाठकों
के
हाथ
में
नहीं
पकड़ाता,
बल्कि
उन्हीं
की
समस्याओं
पर
पुस्तक
लिखता
है
और
उनका
‘‘दिल लगाने’’
के
लिए
वह
जन-साधारण
द्वारा
प्रयुक्त
रसमय
गद्य
का
इस्तेमाल
उपन्यास
में
करता
है।
यानी
उपन्यासकार
यह
संकेत
करना
चाहता
है
कि
जनता
की
भाषा
में
जनता
की
समस्याओं
के
बारे
में
लिखेंगे
तो
जनता
उसे
जरूर
पढ़ेगी।
‘‘साहित्यिक सहृदयता’’
से
शून्य
हमारे
लोग
इन
रसिक
जनों
से
वास्तव
में
ज्यादा
बड़े
‘‘सहृदय’’ होते
हैं।
लेकिन
उनकी
‘‘सहृदयता’’ की
शर्तें अलग
हैं,
और
इन
शर्तों
पर
खरा
उतरने
के
बाद
ही
कोई
लेखक
अपनी
जनता
के
बीच
‘‘महानता’’ का
दर्जा
पाता
है।
तब
उसे
अपने
पाठकों
के
दरवाजे
से
खाली
हाथ
नहीं
लौटना
पड़ता,
जैसा
कि
कवि
केदारनाथ
सिंह
कहते
हैं,
या
तब
उसे
‘‘पाँचवें पाठक’’
की
तलाश
भी
नहीं
करनी
पड़ती,
जैसा
कि
एक
जमाने
में
हिन्दी
के
प्रतिक्रियावादी
व्यक्तिवादी
लेखक
किया
करते
थे।
बाबू
शिवपूजन
सहाय
‘देहाती दुनिया’
की
भूमिका
में
एक
जगह
कहते
हैं,
‘‘असल चीज
है,
पुस्तक
में
व्यक्त
किया
हुआ
भाव।’’
उनकी
इस
पुस्तक
में
यही
भाव
सम्पदा
व्यक्त
है।
यही
इस
पुस्तक
के
लिखे
जाने
का
उद्देश्य
है,
और
यही
इसका
जीवन
दर्शन
है - जनता
और
साहित्य का
एकमेक हो
जाना।
और
इसीलिए
‘देहाती दुनिया’
हिन्दी
का
एक
अनमोल
उपन्यास
है ।
आलेख और ‘देहाती दुनिया’
चित्र © आ. शिवपूजन सहाय स्मारक न्यास
श्री दूधनाथ सिंह का चित्र
: सौजन्य गूगल छवि-संग्रह
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