डाक्टरनामा
स्मरण-प्रसंग : १
९
जुलाई, २०१७ : आज डा. सेन की जन्मशती (१९१६-१९८७) पटना में मनाई गई| उनकी याद आज मुझे भी आई क्योंकि उन्होंने मेरे पिता आ. शिवपूजन
सहाय का - १९५२ से मृत्यु-पर्यंत इलाज किया था| वे हमलोगों के पारिवारिक डॉक्टर थे| मेरा उनसे लम्बा व्यक्तिगत परिचय रहा क्योंकि उस पूरी अवधि में अपने
पिता का मैं ही परिचारक रहा - रोज़ उनके पेशाब की जाँच करना और दोनों शाम इन्सुलिन
की सुई लगाना मेरा ही काम था| और
इलाज बराबर डा. सेन का ही रहा| मेरे
पिता की जन्मशती के अवसर पर प्रकाशित स्मारिका 'वागीश्वरी' में डा. सेन ने अपनी श्रद्धांजलि में लिखा था -
"विक्टर ह्यूगो ने एक महान व्यक्ति
के जीवन की तुलना सागर की उत्ताल तरंगों से की है| जब मैं आ. शिवपूजन सहाय का इलाज कर रहा था, तो मुझे ह्यूगो की यह उक्ति बराबर याद आती रही| वे जब पहली बार एक मरीज की हैसियत से मुझसे मिले तो वे
बिलकुल सहज थे;
केवल कुछ थके ज़रूर लगे| बाद के महीनों में मुझे भारत के इस महान साहित्यकार को कुछ
ज्यादा निकट से देखने का अवसर मिला| बीच-बीच
में जब रोग ने गंभीर मोड़ लिए, तब
उस झंझावात में भी आचार्य जी में थोडा भी विचलन नहीं दिखाई पड़ा, और जब वे उससे उबर गए उस समय भी उनमें कोई उल्लास का भाव
नहीं दिखाई पड़ा|
वे तब भी सागर की भाँति
गंभीर बने रहे|
एक बार जब मृत्यु उनके
अत्यंत निकट आई थी,
वे तब भी उसी तरह अविचलित
लगे, जाने को बिलकुल तैयार - बिलकुल
निस्पृह और निर्द्वन्द्व| पर
वे मृत्यु के मुख से लौट आये और अपने कार्य में उसी तरह शांत एवं दत्तचित्त होकर लग
गए|
डा. सेन एक अत्यंत संवेदनशील, मार्क्सवादी चिन्तक, गरीबों के मसीहा और छोटी के चिकित्सक थे | पचास के दशक में उनका क्लिनिक पटना कॉलेज के ठीक सामने वाली गली में अवस्थित था| पिता की मृत्यु के बाद भी वे हमारे पारिवारिक डाक्टर बने रहे, और हमारे प्रति विशेष स्नेहवान रहे| मेरे पिता जब अपनी अंतिम बीमारी में पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल में हथुआ वार्ड में भर्ती थे - जहाँ २१, जनवरी १९६३ के ब्रह्म मुहूर्त्त में उनका निधन हुआ - तब भी अस्पताल के नियमों के विरुद्ध डा. सेन ( मेरे पिता के स्थायी चिकित्सक की हैसियत से) वहां ५ दिन तक रोज़ सरकार द्वारा गठित विशेष चिकित्सा समिति की बैठक में नियमित आते रहे जिसमें डा. लाला सूरज नंदन और डा. मधुसुदन दास भी उपस्थित रहते थे.| उस समय का एक अंग्रेजी में लिखा संस्मरण भी मैं यहाँ समयानुसार प्रकाशित करूंगा|
यहाँ जो चित्र हैं उनमें मेरे पिता का एक वो चित्र भी है जो मैंने तब खींचा था जब वे पटना पीरबहोर पोस्ट ऑफिस की बगल के टी.बी. अस्पताल में १० महीने तक भरती रहे थे, और उन्हीं दिनों १९५३-५४ में बेनीपुरीजी ने अपनी ग्रंथावली का पहला खंड स्वयं प्रकाशित किया था और उसकी पहली प्रति 'अपने प्यारे भैया' को भेंट करने वहां अस्पताल में पहुंचे थे|
स्मरण-प्रसंग : २
मेरे पिता पटना में शुरू से
अंत तक डा. सेन के इलाज़ में रहे| १९५२ से ही मधुमेह के साथ वे तपेदिक की चपेट में भी आ गए थे| १९ जुलाई को
पहली बार उनके मुहं से खून आया था| डा. सेन ने अपने संस्मरण में उनके मृत्यु के
मुख से लौटने के जिस प्रसंग का ज़िक्र किया है उस समय हमलोग हिंदी साहित्य सम्मलेन
भवन में ही रहते थे| सम्मलेन के ही पिछवाड़े एक कमरे में मेरे पिता गंभीर रूप से
बीमार थे| डा. सेन की दवाएं चल रही थीं पर मुहं से खून आना रुक नहीं रहा था| शाम
होने वाली थी और उस दिन स्थिति बहुत बिगड़ती जा रही थी| खून रोकने की सुई का भी कोई
असर नहीं हो रहा था| डा. सेन वहीं बिस्तर
के बगल में चिंतित बैठे थे| कमरे में और केवल मैं ही था| किसी तरह के शोरगुल की
डॉक्टर की सख्त मनाही थी|
बाहर सम्मलेन के कार्यालय
में बेनीपुरीजी, नलिनजी, दीक्षितजी, डा.विश्वनाथ प्रसाद (अध्यक्ष, हिंदी विभाग,
पटना वि.वि) आदि कई साहित्यकार चिंता-मग्न बैठे थे| सम्मलेन में जैसे एक तनावपूर्ण
सियापा छा गया था| मुझे याद है – उसी समय विश्वनाथ बाबू ने अपने भाई डा. रघुनाथ
शरण (राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद के निजी चिकित्सक) को फोन करके बुलाया था|
मेरे पिता पहले से उनके इलाज में नहीं थे| लेकिन उन्होंने पहले पिता को जाकर देखा
और डा. सेन से उनकी बीमारी का सारा हाल सुना| फिर एक पुर्जे पर किसी गोली का नाम
लिख कर मुझको दिया| मैं भाग कर बगल की समाद्दार फार्मेसी गया और दवा की दो गोलियां
चार आने में लेकर तुरत आया| डा. शरण ने मुझसे कहा कि दोनों गोलियों को पीस कर मधु
में मिला कर जाकर धीरे-धीरे जीभ पर चटा दो| मैंने तुरत वही किया| और तभी मैंने वो
जादू देखा| उसके बाद जो खून की उलटी रुकी तो फिर रुक ही गयी| घंटे भर तक दोनों डा.
वहीं बैठे रहे, और फिर इस हिदायत के साथ गए कि फोन से हाल बताते रहना|
यह मेरे जीवन का सबसे
रोमांचकारी और विस्मयकारी अनुभव था जो मेरी याददाश्त में एक पत्थर की लकीर की तरह
खुद गया है| उसके बाद जैसे ही मेरे पिता के स्वास्थ्य की स्थिति में कुछ सुधार आया
डा. सेन की अनुशंसा पर उनको १६ अप्रैल,’५३
को पटना, पीरबहोर पोस्ट-ऑफिस की बगल में टी.बी. अस्पताल में भर्ती कराया गया जहां
से १० महीने बाद स्वस्थ होकर वे १६ फ़रवरी, ’५४ को फिर सम्मलेन भवन लौटे| मेरे पिता
का सम्मलेन-अवस्थित बि.रा.भा. परिषद् की लगभग पूरी सेवा-अवधि उनकी बीमारी की एक
लम्बी कहानी है जो उनकी डायरियों में दर्ज है|
लेकिन डा. रघुनाथ शरण को आज
लोग पूरी तरह भूल चुके हैं| मुझे याद है, उनका एक छोटा-सा क्लिनिक उन दिनों जमाल
रोड में था| पिता के देहांत के बाद भी मैंने कई बार उनकी चिकित्सा का चमत्कार देखा
था| मेरे पिता की तरह ही, राजेन्द्र बाबू जब १९६१ में सांघातिक रूप से मौत से रू-ब-रू
हुए थे तो पटने के डा. रघुनाथ शरण और डा. टी.एन.बनर्जी की चिकित्सा से ही उनके
प्राण बच सके थे| राजेंद्र बाबू की मेरी लिखी (शीघ्र प्रकाश्य) अंग्रेजी जीवनी में
उस प्रसंग की विस्तार से चर्चा है| मेरी स्मृति में और ऐसे कुछ यशस्वी डॉक्टरों की
स्मृतियाँ हैं जो अविस्मरणीय हैं| उस ज़माने के ये महामानव डॉक्टर सचमुच धनवंतरि के
अवतार ही थे!
मुझे खेद है मेरे पास डा.
रघुनाथशरण की कोई तस्वीर नहीं है| (अगर किसी के पास हो तो वह ज़रूर पोस्ट करे|)
राजेन्द्र बाबू की जीवनी लिखने के क्रम
में मुझे राष्ट्रपति भवन में ढूंढते हुए एक यही तस्वीर मिली जिसमें राजेन्द्र बाबू
के साथ डा. टी.एन. बनर्जी बैठे हैं| डा. बनर्जी का मकान पटना के एस.पी. वर्मा रोड
में था, और वे भी धनवंतरि के ही एक अवतार थे| पटने में ऐसे कई डॉक्टर थे जिन पर
शायद एक मुकम्मल किताब ही लिखी जानी चाहिए|
लेकिन पुराने समय को और
पुराने महापुरुषों को याद करने का तो शायद ज़माना ही चला गया!
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