Sunday, December 25, 2016



अनुपम मिश्र : पानी की कहानी

गाँधी के ‘हिन्द स्वराज’ की तरह ही अनुपम मिश्र की एक १०० पृष्ठों की किताब है ‘आज भी खरे हैं तालाब’ जहाँ खरे का अर्थ मूल्यवान से है| तालाब यहाँ पर्यावरण का एक रूपक है जिसमे पर्यावरण और मनुष्य दोनों प्रतिबिंबित होते हैं| तालाब में मानव समाज भी अपनी समष्टि में प्रतिबिंबित हुआ है – या अब कहना चाहिए – हुआ करता था|  हमारे सामने प्रश्न यह है कि अब क्या रिश्ता बचा है मनुष्य का तालाब या पानी से – पानी जो उसके लिए खरे सोने की तरह कीमती है और जिसको वह बूँद-बूँद पिए जा रहा है ; और मनुष्य और पानी के बीच के इस रिश्ते में हमारा साहित्य-लेखन - और यदि अधिक व्यापक रूप में देखें तो हमारा समग्र जीवन – समाज, राजनीति, धर्म, कला-संस्कृति – सब कुछ कहाँ ठहरा हुआ है, या उस जीवन-मरण के प्रश्न से कितना  बाखबर या बेखबर है|

अनुपम मिश्र की किताब एक जलता हुआ सवाल लेकर हमारा सामना करती है| इस किताब में
 तालाब की पूरी कहानी कही गयी है – तालाब जो हमारे गावों की जीवन-नलिका की तरह हैं| क्या हाल है हमारे गावों के कुओं और तालाबों का आज जबकि आदमी पानी को बूँद-बूँद पीता जा रहा है|
जिस देश की अस्सी प्रतिशत जनता गावों में रहती है, और अगर सोचें तो शायद पूरी दुनिया में ही अस्सी प्रतिशत जनसँख्या गावों में रहती है, वहां कुओं और तालाबों का कैसा महत्व है| मानवता के इस अस्सी प्रतिशत का, उसके जीवन की सबसे मूलभूत समस्याओं की ओर हमारा कितना ध्यान है? साहित्य-लेखन, सामाजिक या राजनीतिक विमर्श में इतनी बड़ी और इतनी महत्वपूर्ण समस्या की ओर हमारा कितना ध्यान है, यह एक गंभीर विचारणीय प्रश्न है|

लेकिन यह प्रश्न केवल गावों से सम्बद्ध या पानी और तालाबों से जुड़ा हुआ प्रश्न ही नहीं है, इसका एक बहुत व्यापक और वैश्विक सन्दर्भ भी है, समग्र पर्यावरण से जुड़ा हुआ| इधर इसी साल अंग्रेजी में इसी प्रश्न से जुड़ी हुई एक महत्वपूर्ण पुस्तक आई है – ‘दि ग्रेट डीरेंज मेंट’ जिसके लेखक हैं भारतीय अंग्रेजी लेखन में एक जाने-माने नाम – अमिताभ घोष| अनुपम मिश्र ने जिस प्रश्न को भारत के गावों के तालाबों के प्रतीक के रूप में रेखांकित किया है, अमिताभ घोष ने उस प्रश्न को पर्यावरण के विस्तारित फलक पर उसकी समग्रता में व्याख्यायित किया है| इधर संयुक्त राष्ट्र के तत्त्वावधान में न्यू यॉर्क, पेरिस और क्योटो आदि में कई पर्यावरण संरक्षण सम्मलेन हुए हैं लेकिन आज भी ढाक के पात वही तीन के तीन रहे हैं| अमिताभ घोष ने अपनी सद्यः प्रकाशित पुस्तक में पर्यावरण के इस ज्वलंत प्रश्न को साहित्य, संस्कृति और राजनीति से जोड़कर देखा है| वे उस पुस्तक में सीधे हिंदी साहित्य की बात तो नहीं करते, या केवल भारत की बात नहीं करते, लेकिन उपनिवेशवाद के सन्दर्भ में वे पूरे एशिया को इस महान संकट के केंद्र में पाते हैं जहाँ विकासशीलता के नाम पर पर्यावरण का यह संकट सबसे गंभीर होता जा रहा है|

सूत्र-रूप में जिस प्रश्न की ओर अनुपम मिश्र की पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ ने ध्यान खींचा है, विश्वव्यापी फलक पर उसी प्रश्न की ओर, और उसके अनेक विविध पक्षों की ओर, अमिताभ घोष की उस पुस्तक ने भी हमारा ध्यान आकर्षित किया है| मूल तर्क का बीज वही है जिसे हम अनुपम मिश्र की पुस्तक में या उनके जीवन-कर्म में भारतीय गावों के सन्दर्भ में देखते हैं| अमिताभ घोष अपनी उस पुस्तक में सबसे ज्यादा जोर इस बात पर देते हैं कि यद्यपि पर्यावरण के इस संकट से सारी दुनिया के लोग प्रभावित हैं, किन्तु साहित्य और इतिहास-लेखन में और राजनीतिक विमर्श में और भी इस प्रश्न की बहुत बड़े पैमाने पर अनदेखी हो रही है| और साहित्य-लेखन में तो या कला-क्षेत्र में भी जैसे हम इस अहम् सवाल से बराबर  आँखें चुराते रहे हों| लेकिन  इस पर्यावरण संकट का सम्बन्ध केवल प्राकृतिक ह्रास से नहीं है, बल्कि चिंता का विषय यह है कि साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में भी- जो इससे सीधे-सीधे जुड़े हैं - इसकी ओर रचनाकारों और कलाकर्मियों का ध्यान लगभग नहीं के बराबर है| छिटफुट व्यक्तिगत स्तर पर भले ही इसकी ओर थोडा ध्यान दिया जा रहा हो, लेकिन गैर-राजनीतिक स्तर पर समाज में कोई उल्लेखनीय सांगठनिक प्रयास या आन्दोलन इसके लिए होता नहीं दिखाई देता| अमिताभ घोष ने भी इस मामले में collective action के अभाव की बात कही है| और यह भी कहा है कि आधुनिक साहित्य – विशेष कर कथा साहित्य – इस भीषण संकट से दो-दो हाथ करने में असमर्थ सा लगता है, हालांकि पर्यावरण चेतना की जागृति के लिए कथा साहित्य में असीम संभावनाएं हैं| 




अपनी किताब में अमिताभ घोष ने उदाहरण के तौर पर मुंबई में या मेट्रोपोलिस सागर-तटीय सभी बड़े-बड़े शहरों में अगले २०-३० वर्षों में समुद्र में ३०-४० फीट ऊँची तूफानी लहरों के हमले से शहर के तटीय इलाकों की भीषण तबाही का एक भयावह चित्र खींचा है| प्रकृति और पर्यावरण के प्रति मनुष्य के द्वारा किये जाने वाले लापरवाह दुर्व्यवहार का कैसा खतरनाक हर्जाना भरना पड़ेगा इसका एक रोमांचकारी चित्र खींचा है अमिताभ घोष ने अपनी किताब में| वास्तव में तो यह प्रश्न वैश्विक, सार्वभौमिक और सार्वजनीन है जिससे सभी जुड़े हैं और सबकी सन्ततियां जुडी हैं| ‘द ग्रेट डिरेंजमेंट’ से उनका तात्पर्य उसी संभावित प्रलयकारी तबाही से है - आज लिखा जाने वाला साहित्य और विशेष कर कथा-साहित्य, जिसके वे स्वयं एक विश्वस्तरीय लेखक माने जाते हैं – जिसे कोई तवज्जो नहीं दे रहा है| अंत में वे कहते हैं – Is it possible that the art and literature of this time will one day be remembered because of their complicity in the Great Derangement?  क्या यही होना है कि आज रचे जा रहे कला और साहित्य-लेखन को  आनेवाली पीढियां इसके लिए याद करेंगी कि उसीकी उदासीनता की सांठ-गाँठ के कारण यह प्रलयकारी तबाही उनको नसीब हुई?

[आ. शिवपूजन सहाय स्मारक न्यास और पीएचडी चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स द्वारा २४ दिसंबर २०१६ को लखनऊ में आयोजित अनुपम मिश्र स्मरण संगोष्ठी में डा. मंगलमूर्ति का बीज वक्तव्य|]

चित्र : साभार गूगल 


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