‘द्विवेदी-अभिनन्दन-ग्रन्थ’ का
पुनर्प्रकाशन
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी बीसवीं सदी के प्रारंभ में
हिंदी-नवजागरण के साहित्य-पुरोधा थे| उनकी ६९ वीं जयंती पर काशी नागरी प्रचारिणी
सभा द्वारा १९३३ में उन्हें एक ‘अभिनन्दन ग्रन्थ’ समर्पित किया गया था जिसका
सम्पादन आचार्य शिवपूजन सहाय ने किया था| गत ४ नवम्बर को लखनऊ के हिंदी संस्थान
में एक समारोह में उस ग्रन्थ के पुनर्मुद्रित संस्करण का लोकार्पण हुआ था| उस अवसर
पर अध्यक्ष-पद से मैंने जो वक्तव्य दिया था उसका मुख्यांश यहाँ पढ़ा जा सकता है
जिसमें उस ग्रन्थ के प्रकाशन से सम्बद्ध कुछ आवश्यक जानकारी दी गयी है | इस
महत्वपूर्ण साहित्यिक ग्रन्थ का पुनर्मुद्रण नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा इसी वर्ष हुआ
है| यह ग्रन्थ एक धरोहर की तरह संग्रहणीय है|
‘द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ का पुनर्प्रकाशन एक युगांतरकारी साहित्यिक घटना है| युगांतरकारी
इसलिए कि जब १९३३ में पहली बार ‘द्विवेदी-अभिनन्दन-ग्रन्थ’ प्रकाशित हुआ था तब तक
शायद इस आकार-प्रकार का दूसरा कोई इतना सुन्दर और इतना सामग्री-समृद्ध अभिनन्दन
ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हुआ था जो हिंदी की सबसे बड़ी संस्था काशी की
नागरी-प्रचारिणी-सभा द्वारा उस युग के सबसे महान साहित्य-सेवी आचार्य महावीर प्रसाद
द्विवेदी को उनकी सुदीर्घ एवं महनीय हिंदी सेवा के लिए उनके सत्तरवें वर्ष-प्रवेश
के अवसर पर उन्हें अभिनंदित करने के लिए उन्हें भेंट किया गया हो| हाल में जब उस
गौरवशाली घटना के ८२ वर्ष बाद उस महान ग्रन्थ की शतशः प्रतिकृति पुनः ग्रंथाकार
प्रकाशित रूप में दुबारा लोकार्पित हुई है तो ऐसा शायद हिंदी-जगत में पहली ही बार हुआ
है|
इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण उल्लेखनीय बात य है कि इस महाग्रंथ का वास्तविक और सम्यक सम्पादन
आचार्य शिवपूजन सहाय ने किया था जिसका उल्लेख इस नवीन पुनर्मुद्रित संस्करण के
परिचय में भी कहीं नहीं किया गया है | सर्वांग-सुन्दर इस नवीन पुनर्मुद्रित
संस्करण में एक गंभीर मुद्रण-दोष यह भी है कि इसमें प्रकाशित ‘भूमिका’ खंडित और
अपूर्ण छपी हुई है| यह भूमिका श्री रामनारायण मिश्रजी की लिखी हुई थी जो उन दिनों
काशी नागरी-प्रचारिणी-सभा के सभापति थे और जिनका नाम उस भूमिका के अंत में छपा हुआ
था| भूमिका के प्रारंभ में उनकी शिवपूजन सहाय से सम्बद्ध ये पंक्तियाँ तो इस संस्करण
में प्रकाशित हैं| उन्होंने लिखा है –
“जनवरी १९३२ में
पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी २४ घंटे के लिए काशी पधारे थे| उस समय काशी नागरी प्रचारिणी
सभा की ओर से उन्हें एक अभिनन्दन-पत्र दिया गया था| उनके चले जाने के कई दिन बाद
श्री शिवपूजन सहाय ने सभा के मंत्री (श्री राय कृष्ण दास) से चर्चा की कि सभा को
केवल मानपत्र देकर ही न रह जाना चाहिए, आचार्य के अभिनंदनार्थ एक सुन्दर ग्रन्थ भी
निकलना चाहिए...इस समुचित प्रस्ताव का सभा ने सहर्ष और सादर स्वागत किया और इसे
कार्य-रूप में परिणत करने का आयोजन प्रारम्भ कर दिया|”
लेकिन इस नए संस्करण में अगले पृष्ठ पर यह भूमिका अचानक
अधूरी ख़त्म हो जाती है, क्योंकि इसके नीचे इसके आगे के अनुच्छेद और इसके लेखक का
नाम गायब मिलते हैं| उस गायब अंश में भूमिका के अंत में श्री रामनारायण मिश्र का
नाम सभापति, काशी नागरी प्रचारिणी सभा के रूप में छपा हुआ है| और वहीं ये
पंक्तियाँ हैं जो इस पुनर्मुद्रित संस्करण में अनुपस्थित हैं| वे पंक्तियाँ हैं –
“श्री शिवपूजन सहाय
जी ने जो बीज बोया, उसे पल्लवित करने में उनका बहुत बड़ा हाथ रहा है| लेखों के
संपादन में उन्होंने पूरी सहायता दी है और इस थोड़े समय के अन्दर ही जहाँ तक बन पड़ा है, उन्होंने प्रूफ भी बड़ी
सतर्कता और सतत परिश्रम से देखा है|”
इन पंक्तियों के नीचे, जो इस संस्करण में गायब है, श्री
रामनारायण मिश्र, सभापति, काशी नागरी प्रचारिणी सभा का नाम छपा है और तिथि दी हुई
है – १९ वैशाख, १९९०, अर्थात लगभग मई, १९३३| निश्चय ही यह इस ग्रन्थ के
प्रकाशन की एक गंभीर भूल है, और आशा है इसका परिमार्जन अभी भी मूल ग्रन्थ की दूसरी
प्रति से मिला कर अवश्य किया जा सकेगा| ग्रन्थ के लिए लिखित १० पृष्ठ के नये
‘परिचय’ में भी इस ग्रन्थ के मूल संस्करण के प्रकाशन से सम्बद्ध अनेक बातें
अनुल्लिखित रह गयी हैं| उदाहरण के लिए, ग्रन्थ के प्रकाशन की योजना कैसे बनी, कौन
लोग उसके प्रस्तावक और प्रमुख कार्य-वाहक थे, ग्रन्थ-समर्पण का समारोह कब और कैसे
संपन्न हुआ, ग्रन्थ मुद्रण और विक्रय आदि का आर्थिक पक्ष क्या था, ‘परिचय’ में इन
बातों पर भी प्रकाश पड़ना चाहिए था| ‘परिचय’ में जो सबसे महत्वपूर्ण सूचना मिलती है
वह है कि ग्रन्थ की ‘प्रस्तावना’ आचार्य नंददुलारे वाजपेयी की लिखी हुई है जिसके
नीचे किन्हीं कारणों से ग्रन्थ के सम्पादक आचार्य श्यामसुंदर दस और श्री राय कृष्ण
दास का नाम छपा हुआ है| संभव है जैसे सम्पादन का मुख्य भार श्री शिवपूजन सहाय को
दिया गया था, उसी प्रकार ‘प्रस्तावना’ लिखने का भार भी आ. नंददुलारे वाजपेयी को दे दिया गया हो पर उनका
नामोल्लेख नहीं किया गया हो|
इस ग्रन्थ के सम्पादन और प्रकाशन से जुड़े एक लम्बे प्रसंग
पर शिवपूजन सहाय के द्विवेदीजी पर लिखे संस्मरणों से नया प्रकाश पड़ता है| वास्तव में प्रारम्भ से लेकर अंत तक इस ग्रन्थ
के प्रकाशन में शिवपूजन सहाय की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही| रामनारायण मिश्रजी ने
उपर्युक्त पंक्तियों में उनकी ओर स्पष्ट इशारा भी किया है| जैसे उन्होंने कहा है
कि “जनवरी १९३२ में
पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी २४ घंटे के लिए काशी पधारे थे| उस समय काशी नागरी
प्रचारिणी सभा की ओर से उन्हें एक अभिनन्दन-पत्र दिया गया था”| इस प्रसंग में शिवजी अपने संस्मरण में लिखते हैं –
“अचानक, कुछ घंटों के
लिए द्विवेदीजी काशी आ गए थे| काशी की नागरी प्रचारिणी सभा में केवल इसी एक बार
मैं आचार्य द्विवेदीजी के आराध्य चरणों का स्पर्श कर कृत-कृत्य हुआ था| काशी के
सहृदय कलाविद राय कृष्णदास जी के आदेश से बड़ी शीघ्रता में एक अभिनन्दन पत्र लिखा
गया (जिसे शिवपूजन सहाय ने स्वयं लिखा था)| श्री प्रवासीलाल वर्मा के सहयोग से,
प्रेमचंदजी के ‘सरस्वती प्रेस’ में, दो घंटे के अन्दर ही, उसे मैं छपवा लाया|
तुरंत वह पढ़ा गया| द्विवेदीजी तांगे पर सवार हुए| मैंने साहित्यिक-ऋषि के चरण रेणु
का अमृतांजन आँखों में लगाया...|”
द्विवेदीजी सम्मान और अभिनन्दन से सदा दूर रहते थे| लेकिन
काशी नागरी प्रचारिणी सभा से उनका बहुत आत्मीय लगाव था इसीलिए उन्होंने इस
अभिनन्दन पत्र को स्वीकार किया होगा| सहायजी उन दिनों कविवर ‘प्रसाद’ की मंडली के
सदस्य थे और काशी में ही सभा के बिलकुल पास कालभैरव मोहल्ले में ही सपरिवार निवास करते थे| एक वर्ष बाद फ़रवरी,
१९३२ में ‘प्रसाद-मंडली’ की ओर से काशी से ही सहायजी के संपादन में शुद्ध साहित्यिक-पाक्षिक ‘जागरण’
का प्रकाशन हुआ| इसके दूसरे ही अंक में सहायजी ने द्विवेदीजी की आगामी जयंती के
अवसर पर काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा एक ‘अभिनन्दन-ग्रन्थ’ द्विवेदीजी को भेंट
करने का विचार सर्वप्रथम प्रस्तावित किया| सभा ने प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकृत किया
और अगले वर्ष की जयंती (९ मई, १९३३) के अवसर पर भेंट के लिए यह ग्रन्थ प्रयाग के
इंडियन प्रेस में छप कर तैयार हुआ| ग्रन्थ के प्रकाशन की तैयारी तो फ़रवरी, १९३२ के
प्रस्ताव के बाद ही शुरू हो गयी थी| मई, १९३२ के ‘जागरण’ में इसकी योजना के विषय
में शिवजी ने पुनः लिखा –
“काशी-नागरी-प्रचारिणी
सभा ने अगले साल (१९३३में) आचार्य द्विवेदीजी को सत्तरवें वर्ष में प्रवेश करने पर
जो अभिनन्दन-ग्रन्थ समर्पित करने का निश्चय किया है, उसमें रायल अठ्पेजी साइज के
करीब साढ़े पांच सौ पृष्ठ होंगे| तिरंगे और एकरंगे चित्रों की संख्या लगभग तीस
होगी| उसके प्रत्येक पृष्ठ से मुद्रण-कला का विलक्षण चमत्कार प्रकट होगा| हिंदी के
गण्य-मान्य लेखकों, कवियों, संपादकों और हितैषियों की सुन्दर रचनाएं और भारत-प्रसिद्द
चित्रकारों के बनाए चित्र उसे अलंकृत करेंगे| इस प्रकार उस ग्रन्थ के प्रकाशन में
हज़ारों रुपये व्यय होंगे... धनी-मानी हिंदी-प्रेमियों को अपनी उदारता और
हिंदी-प्रेम दिखाने का यह अच्छा अवसर मिला है |”
अभिनन्दन-ग्रन्थ अंततः लगभग सवा साल बाद - जनवरी से अप्रैल,
१९३३ के तीन महीनों में - छप कर तैयार हो गया और ९ मई, १९३३ को नागरी प्रचारिणी
सभा में आयोजित एक विशेष समारोह में ओरछा-नरेश के हाथों द्विवेदीजी को समर्पित
किया गया| शिवजी ने अपने संस्मरणों और सम्पादकीय टिप्पणियों में द्विवेदीजी से
सम्बद्ध अनेक महत्वपूर्ण सूचनाएं दी हैं| उनके एक संस्मरण का एक अंश यहाँ विशेष प्रासंगिक
है| सहायजी लिखते हैं –
“जनवरी, १९३२ में उपर्युक्त अभिनन्दन पत्र लेकर जब द्विवेदीजी
चले गए तब राय कृष्णदास जी से मैंने निवेदन किया की सभा की ओर से द्विवेदीजी को एक
सर्वांग-सुन्दर अभिनन्दन ग्रन्थ दिया जाना चाहिए| राय साहब ने भगीरथ प्रयत्न किया|
उनके उद्योग-रथ में मेरे दुर्बल कंधे भी भिड़े| वह कई महीनों के लगातार परिश्रम की
लम्बी कहानी है| मैं महीनों इंडियन प्रेस में बैठ कर अभिनन्दन-ग्रन्थ तैयार करता
रहा; पर जब उसके समर्पण का समय आया तब मेरे पांच वर्ष के पुत्र आनंदमूर्ति पर शीतला
भवानी का भयंकर आक्रमण हुआ| काशी से तार पाते ही मैंने प्रेस से प्रस्थान किया| उस
दिन से एक-डेढ़ महीने तक दरवाजे से बाहर न निकला| काशी में अभिनन्दन समारोह हो रहा
था और मैं व्यग्र बच्चे की सुश्रूषा में व्याकुल था| वर्तमान ‘सरस्वती’-सम्पादक
श्री देवीदत्त शुक्लजी मेरा बक्स-बिस्तर प्रेस से लाकर दे गए|... उत्सव का केंद्र
सभा-भवन मेरे मकान से सौ गज से अधिक दूर न था| पर मैं तो दूसरी ही दुनियां में था|
महीनों से पूजा के फूल संजोता रहा, पर पूजा के समय ‘देवता’ के दर्शन से भी वंचित रहा|
उस समय का कोई भी आनंद मेरे भाग्य के बांटे का नहीं था| श्री मैथिलीशरणजी और राय कृष्ण
दासजी द्विवेदीजी का लिखा हुआ एक श्लोक
मुझे दे गए और कह गए कि आचार्य का ह्रदय सहानुभूति से विह्वल है; पर
अस्वस्थ हो जाने से यहाँ तक आने में असमर्थ हैं – बच्चे को यह आशीर्वाद दिया ह| उस
श्लोक में बच्चे के आरोग्य-लाभ के लिए जगदम्बा से प्रार्थना थी| ‘रंक की निधि’ की
तरह मैंने उसे जुगा कर रख लिया|
शिवजी के संस्मरणों में द्विवेदीजी से सम्बद्ध अनगिनत
अत्यंत महत्वपूर्ण सूचनाएं भरी पड़ी हैं| ‘द्विवेदी-अभिनन्दन-ग्रन्थ’ के
सम्पादन-क्रम में शिवजी एक हाथ की सिली नोटबुक में राय साहब और श्यामसुंदर दासजी
के सम्पादन-सम्बन्धी निर्देश नोट किया करते थे| वह नोटबुक शिवजी के अपने संग्रह
में है जिसके पन्नों की प्रतिकृतियाँ ‘शिवपूजन सहाय साहित्य-समग्र’ में प्रकाशित
हो चुकी हैं| द्विवेदीजी को यह अभिनन्दन-ग्रन्थ उनके ६९ वें जन्मदिन पर ९ मई, १९३३
को भेंट किया जाना था जिस दिन वे अपने जीवन के सत्तरवें वर्ष में प्रवेश कर रहे थे|
नोटबुक में एक निर्देश यह है कि कविताओं, श्रद्धांजलियों को छोड़ कर केवल लेखों की
संख्या ६९ ही रखी जाय| इस कारण कई लेखों को शामिल नहीं किया जा सका| स्वयं
श्यामसुंदर दासजी और राय कृष्ण दासजी ने ग्रन्थ से अपने लेख हटा लिए| एक जगह यह भी
निर्दिष्ट है की शब्दों के हिज्जे में कैसी एकरूपता रखी जाय, जैसे ‘अंग्रेजी’ की
जगह ‘अंगरेजी’ या ‘चाहिये’ की जगह ‘चाहिए’ हिज्जे ही रहे| इस नोटबुक को देखने से
पता लगता है की दिनानुदिन ग्रन्थ संपादन का काम कैसे चल रहा था| सहायजी को जो
खर्च-बर्च सभा से मिलता था उसका भी पाई-पाई का हिसाब उसमें अंकित है, जैसे १५
फ़रवरी से १५ मार्च तक का कुल बिल १९ रु. ८ आने | यह नोटबुक वास्तव में उस ग्रन्थ के
सम्पादन की एक मुकम्मल दैनन्दिनी ही है| ऐसी सब बहुमूल्य संग्रहणीय सामग्री - सहायजी
का सम्पूर्ण साहित्यिक संग्रह जिसमे उनका विशाल पत्र संग्रह, उनकी डायरियां,
पत्र-पत्रिकाएं, पुस्तकें आदि विभिन्न सामग्री हैं, अब नेहरु मेमोरियल लाइब्रेरी
में सुरक्षित है| वह पुर्जा जिस पर शीतालाग्रस्त बच्चे के लिए आशीर्वाद-स्वरुप
द्विवेदीजी ने श्लोक लिख भेजा था वह पुर्जा तक उसमें संगृहीत है| श्लोक के नीचे
उनकी पंक्तियाँ हैं – “भगवती जगदम्बिका से
मेरी यही प्रार्थना है |कृपा करके वह आपके बच्चे को जल्दी नीरोग कर दे|”
‘साहित्य-समग्र’ के
१० खण्डों में इस तरह की अधिकाँश सामग्री प्रकाशित की जा चुकी है जिनमें इन सब के
चित्र और प्रतिकृतियाँ भी प्रकाशित हैं| वहीं प्रकाशित द्विवेदीजी के उनके संस्मरण
और पत्रों में महत्वपूर्ण सूचनाएं मिलती हैं| जैसे ‘अभिनन्दन-ग्रन्थ’ के
सम्पादन-क्रम में सहायजी ने नागरी-प्रचारिणी सभा के पुस्तकालय में, जहां
द्विवेदीजी ने अपने सारे ग्रन्थ-संग्रह और ‘सरस्वती’ के सभी संपादित अंकों की मूल
पांडुलिपियों को सुरक्षित रखवा दिया था, उन सबको देखा-खंगाला था और उसका विस्तृत
विवरण उन्होंने अपने उस लम्बे संस्मरण में दिया है जो १९३३ में ‘हंस’ के दो अंकों
में प्रकाशित हुआ था| उनके विषय में शिवजी ने लिखा है –
“आचार्य द्विवेदीजी
ने अपने अठारह वर्षों के सम्पादन-काल में ‘सरस्वती’ के लिए जितने लेखों और कविताओं
का संशोधन किया था, सबकी असली कापी प्रेस से मंगा कर सिलसिलेवार रखते गए थे| फिर
अंत में उन्हें अलग-अलग बंडलों में बाँध कर काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा को दे दिया
था| उन बंडलों में हिंदी भाषा के विकास का इतिहास छिपा हुआ था| वे बण्डल हिंदी
साहित्य-भंडार के लिए अशर्फियों के गगरे थे|...द्विवेदीजी ने लेखों की कापियों में
जो करेक्शन किये हैं, उन्हें देख कर सिर चकरा जाता था|...अनेक लेखों को उन्होंने
खुद दुबारा लिखा था| कई लेखों के आधे अंश का पर्याप्त संशोधन किया था और आधा स्वयं
नए सिरे से लिखा था| एक लेख में उन्होंने दोनों तरफ कागज़ चिपका कर संशोधन और
संवर्धन किया था|...”
शिवजी का यह संस्मरण द्विवेदीजी के पूरे वांग्मय पर
सर्वाधिक प्रमाणिक सूचनाओं से भरा हुआ है और द्विवेदी-साहित्य के हर अध्येता के
लिए विशेष महत्वपूर्ण है| वास्तव में यह ‘द्विवेदी- अभिनन्दन-ग्रन्थ’ अपने आप में हिंदी की एक ‘रत्न-मंजूषा’
है| इसके पुनर्प्रकाशन द्वारा अपनी साहित्यिक परंपरा के समादर का यह स्तुत्य
प्रयास स्वयं में अभिनंदनीय है| इस प्रसंग में सहायजी के संस्मरणों में लिखी एक और
बात का उल्लेख करना आवश्यक है| उन्होंने लिखा है कि इस अभिनन्दन ग्रन्थ की छपाई के
लिए इंग्लॅण्ड से विशेष प्रकार का मोटा एंटिक कागज़ मंगाया गया था जो सौ साल से भी
अधिक दिनों तक चल सकता था क्योंकि उसमे दीमक नहीं लग सकते थे| और यह भी लिखा था कि
छप जाने के बाद अभिनन्दन ग्रन्थ की प्रतियां नागरी प्रचारिणी सभा में बहुत दिनों
तक पडी रहीं क्योंकि लोग महंगा होने के कारण उसे खरीद नहीं रहे थे| आशा है इस
पुनर्मुद्रित संस्करण की अधिकाधिक प्रतियां खरीदी जायेंगी और सरकार भी इसको अपना
संरक्षण अवश्य देगी|
इस महान ग्रन्थ के पुनर्प्रकाशन के इस अवसर पर इसके आयोजकों
से और विशेष कर उत्तर प्रदेश सरकार से इस
अभियान को आगे बढाने की दिशा में कुछ निवेदन आवश्यक प्रतीत होते हैं| उत्तर प्रदेश सरकार के सम्बद्ध विभाग से मेरा
अनुरोध है कि एक विशेष समिति गठित करके नागरी प्रचारिणी सभा जहां इस तरह की अत्यंत
बहुमूल्य सामग्री समुचित व्यवस्था के अभाव में नष्ट हो रही है, वहां की व्यवस्था
और सम्पूर्ण सामग्री की यथास्थिति की एक रिपोर्ट तैयार करावे और उसकी सुचारू
व्यवस्था के लिए जो भी आवश्यक हो वह अविलम्ब करे| मेरा दूसरा निवेदन सरकार से ही
यह होगा कि प्रतिवर्ष ‘द्विवेदी-मेला’ की तरह का एक ‘साहित्य-मेला’ आयोजित करे जो
मुख्यतः उत्तर प्रदेश की सम्पूर्ण साहित्यिक परंपरा को भली-भांति उजागर करता रहे| और सरकार से ही मेरा एक अंतिम
निवेदन है कि वह आचार्य द्विवेदीजी की एक प्रामाणिक जीवनी तैयार कराने की दिशा में
आवश्यक कार्य करे और इसके लिए एक विशेष समिति गठित कर के समुचित अर्थ की भी
व्यवस्था करे| सुझाव तो और भी दिए जा सकते हैं जैसे द्विवेदीजी के नाम पर लखनऊ में
एक राजकीय साहित्यिक संग्रहालय की स्थापना
होनी चाहिए जिसमे यह सारी साहित्यिक सम्पदा सुव्यवस्थित ढंग से सुरक्षित और
शोधार्थियों के लिए सुलभ रहे जैसे नेहरु मेमोरियल लाइब्रेरी में है|’सरस्वती’ की
द्विवेदीजी द्वारा संपादित पांडुलिपियाँ यदि काशी नागरी प्रचारिणी सभा में मिल
सकें तो पहले तो उन्हें संरक्षित किया जाये और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय अथवा
लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा उनके आधार पर सम्यक भाषा-वैज्ञानिक शोध की व्यवस्था
कराइ जाये जिससे द्विवेदीजी के भाषा-संशोधन-सम्पादन का वस्तुपरक अनुशीलन हो सके और
उससे हिंदी के विकास के इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड सके|
साहित्य संस्कृति का संवाहक होता है| किसी भाषा के साहित्य
में ही उस देश की संस्कृति के प्राण बसते हैं| इंग्लॅण्ड और अमेरिका में भी
साहित्य और संस्कृति के संरक्षण की चेतना बहुत विकसित है| बल्कि भारत की कुछ अन्य
भाषाओं में भी – जैसे बंगला, मराठी, तेलुगु आदि में भी यह सांस्कृतिक चेतना अधिक विकसित देखने को
मिलती है| इस अभिनन्दन ग्रन्थ का पुनर्प्रकाशन इसी दिशा में एक प्रशंसनीय प्रयास
है| आशा है उत्तर प्रदेश की वर्तमान प्रगतिशील सरकार भी साहित्य-संरक्षण की इस
दिशा में विशेष गतिशील होगी|
(C) डा. मंगलमूर्ति
चित्र: आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी / नागरी प्रचारिणी सभा / आ. श्यामसुंदर दास / श्री रामनारायण मिश्र / श्री चिंतामणि घोष, अधिष्ठाता, इंडियन प्रेस / पुनर्मुद्रित ग्रन्थ / छूटा हुआ पृष्ठ / लोकार्पण-चित्र
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