Monday, May 25, 2015

यादनामा : रवीन्द्रनाथ ठाकुर
चित्तो जेथा भयोशून्य...

भयहीन मन हो जहाँ,
और जहाँ सर ऊंचा रहे सदा;
ज्ञान हो मुक्त जहाँ;
और संकीर्ण अपनी-अपनी दीवारों से
टुकडों में बंटी नहीं हो दुनिया जहाँ;
जहाँ शब्द आते हों सत्य के अंतस्तल  से;
अश्रांत आकांक्षा जहाँ बाहें फैलाती है पूर्णता की ओर;
जहाँ मरे-मिटे रिवाजों के अंतहीन मरुस्थल में
सूख न चुकी हो मनीषा की निर्मल धारा;
जहाँ ले चलते तुम मन को
निरंतर-विस्तारित कर्म और विचारों की ओर;
स्वाधीनता के उसी स्वर्ग में
ओ मेरे पिता,
जागृत हो मेरा भारत देश!

हाल में रवीन्द्रनाथ ठाकुर की जयंती मनाई गई. यह प्रसिद्ध कविता उनकी गीतांजलिमें उन्ही के द्वारा अंग्रेजी में भी अनूदित उपलब्ध है. उस अंग्रेजी कविता की यह चित्र-कृति भी उन्हीं के द्वारा रेखांकित है.और उसका यह हिंदी अनुवाद मेरा है. इस अनुवाद के प्रकाशन से जुड़ा एक अटपटा प्रसंग, रवीन्द्रनाथ से जुड़ा १९२० के दशक का शिवपूजन सहाय का एक रोचक संस्मरण, तथा २००५ में प्रेमचंद-जयंती में आमंत्रित होकर शान्तिनिकेतन जाने की मेरी  एक छोटी-सी यात्रा-कथा इन सबका एक मिश्रित कथानक इस आलेख का पाठ है.
 
पहले इस कविता के अनुवाद की बात. राजेंद्र बाबू के नाम से जुड़ी एक संस्था ने मुझे उन पर दिए गए स्मारक व्याख्यानों की एक पुस्तक सम्पादित करने का कार्यभार दिया जिसमे एक हिंदी व्याख्यान में रवीन्द्रनाथ ठाकुर की यह कविता अंग्रेजी में उद्धृत थी. मुझे वहां उसका हिंदी अनुवाद देना अधिक उचित प्रतीत हुआ और मैंने उस कविता को हिंदी में स्वयं अनुवादित कर दिया. पुस्तक का आद्योपांत सम्पादन भी मैंने ही किया और उसकी एक अच्छी-सी भूमिका अंग्रेजी में लिख दी. पुस्तक जब प्रकाशित हुई तब संस्था की सचिव ने न केवल मेरी भूमिका को हटा कर एक जैसी-तैसी भूमिका अपने  नाम से उसमे जोड़ दी, बल्कि  सम्पादन का सारा श्रेय स्वयं ले लिया और मेरा नाम बिलकुल हटा दिया. लेकिन पेज ६१ पर जहाँ यह अनूदित कविता छपी थी, और जहां अंग्रेजी से सम्पादक द्वारा अनुवादितयह पाद-टिपण्णी भी नीचे छपी थी क्योंकि अंत-अंत तक सारा सम्पादन और प्रूफ-संशोधन तक मैंने ही किया था वह सब ज्यों का त्यों रह गया, मैंने इसके विरोध में संस्था के अध्यक्ष को भी लिखा लेकिन इतनी बारीक भूल किसी की समझ में ही नहीं आई, और बात वैसी की वैसी रह गई. आज यहाँ इस अनुवाद को प्रकाशित करके यह बता देना सर्वथा उचित लगा कि इस अनुवाद का पूरा स्वत्त्वाधिकार मेरा है.और बड़ी संस्थाओं में भी ऐसी बटमारी बदस्तूर चल रही है. हिंदी लेखकों के पास स्वत्त्वाधिकार नाम की चीज़ शायद होती ही नहीं, क्योंकि उसका अपहरण कोई भी कर ले सकता है.

रवीन्द्रनाथ की कविता में स्वाधीनता के जिस स्वर्गकी कल्पना की गई है वह आज भी एक मृग-मरीचिका-मात्र रह गई है.

रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने यह कविता मूल बंगला में लिखी थी और १९११ में इसे अंग्रेजी में अनूदित किया था. कविता में स्वाधीनता की वह शंख-ध्वनि सुनाई पड़ती है जो हमें अतीत में सौ साल पीछे ले जाती है. यह आजादी की लड़ाई का आगाज़ था. लगभग इसी समय मेरे पिता शिवपूजन सहाय, रोज़ी-रोटी की तलाश में उतना नहीं, जितना स्वातान्त्र्योंन्मुख पत्रकारिता के आकर्षण में - कलकत्ता पहुंचे थे प्रसिद्द राजनीतिक व्यंग्य-साप्ताहिक मतवालाका सम्पादन करने.  लगभग इसी समय रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा  ‘शान्तिनिकेतनकी स्थापना हुई थी, अंग्रेजी गुलामी-मूलक शिक्षा-पद्धति से मुक्ति के लिए. उन दिनों के अपने एक संस्मरण में शिवजी ने लिखा है

१९२५: कलकत्ता के कला थिएटरमें भिखा-दाननामक बंगला नाटक अभिनीत होने वाला था...दर्शकों की भीड़ अपार थी...कहीं तिल रखने की जगह नहीं...विश्वभारती के लिए धन संग्रह का एक आयोजन था...पर्दा सादा.रंगमंच सादा. कोई टीम-ताम नही. अभिनय का आरम्भ होने के पूर्व रंगमंच पर एक ऋषि की-सी दिव्य मूर्ति दीख पड़ी. जोगिया रंग का आगुल्फ़ रेशमी झूल. हरे मखमल का नुकीला जूता. सन-सी सफ़ेद दाढ़ी पर चमकीले चश्मे पर काला रेशमी धागा. नयनाभिराम सौम्य रूप...

नाटक केवल पौन घंटे चला था. अंत में मंच पर घडी, रुपयों और आभूषणों की ढेर लग गई थी, दो दिनों तक नगर के अन्य थिएटरों में भी यह नाटक खेला गया था. मतवाला’-मंडल के सभी सदस्य - महादेव प्रसाद सेठ, निराला, शिवपूजन सहाय, मुंशी नवजादिक लाल उन दिनों इन नाटकों को देखने बराबर जाया करते थे. इनकी समीक्षाएं भी मतवालामें छपती थीं. थिएटर वाले पास दिया करते थे. शिवपूजन सहाय ने उन दिनों के पारसी नाटकों और उनके लेखकों नारायण प्रसाद बेताब’, हरेकृष्ण जौहर’, तुलसीदत्त शैदा’, आगा हश्र आदि पर दिलचस्प संस्मरण लिखे हैं जो उनके साहित्य-समग्र’- खंड २ में पढ़े जा सकते हैं.
 
उन्हीं संस्मरणों में एक विशेष रोचक संस्मरण  कवीन्द्र रवीन्द्र से मिलने का भी है जब मतवाला’-मंडल के चारों  सदस्य उनसे मिलने गए थे. रवि बाबू हिंदी समझते ज़रूर थे पर बोलते नहीं थे. सेठजी तो उनसे बंगला में ही बात करते रहे पर मुंशीजी ने बराबर हिंदी में ही बात करने की कोशिश की  जिस कारण रवि बाबू ने उनकी और कम ध्यान दिया. अंत में दबी जुबान मुंशीजी ने महाकवि से कहा कि आप टूटी-फूटी हिंदी भी बोलें तो बहुत बड़ी बात होगी.और हिंदी भी पढने की कृपा दर्शाइए. लेकिन रवि बाबू ने रुखाई से कहा तुम्हारी हिंदी में अभी मेरे पढने योग्य कुछ नहीं है. उस समय तो महाकवि को इसका उत्तर कौन देता लेकिन अत्यंत मर्माहत होकर जब मंडली वहां से निकली तब निराला बहुत रोष में आ गए और बोले कबीर और मीरा की जूठन चाट कर इस दाढ़ी वाले ने नोबेल पुरस्कार पा लिया और अब हिंदी का ऐसा अपमान कर रहा है. धिक्कार है.यद्यपि निराला स्वयं कवीन्द्र रवीन्द्र से प्रभावित रहे पर निराला की काव्य-यात्रा में कवीन्द्र रवीन्द्र बहुत पहले ही पीछे छूट गए.

मतवाला’-मंडल के सदस्य उसके बाद फिर कभी रवि बाबू से मिलने नहीं गए.अंग्रेजी में अनूदित होने के बाद भी किसी और भारतीय साहित्यकार को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला. लेकिन जब राजनीतिक कारणों से महात्मा गांधी को ही बार-बार नामांकित होने पर भी नोबेल पुरस्कार नहीं मिला और जब सार्त्र के अलावा कईओं ने इस नोबेल पुरस्कार को नकार दिया तब ऐसे नोबेल पुरस्कार की महत्ता ही क्या रही.! कवीन्द्र रवीन्द्र को भी तो यह पुरस्कार जब १९१३ में  मिला था तब तक उन्होंने कितना लिखा था और  उनके लेखन की ऊँचाई कहाँ तक पहुंची थी. पुरस्कारों के पीछे कुछ न कुछ राजनीति रहती ही है, ऐसा कहा जा सकता है.

बहरहाल, रवीन्द्रनाथ ठाकुर आधुनिक भारतीय साहित्य के गौरव-पुरुष है, ज्योति-स्तम्भ हैं - यह तो लोकमान्य है, और उनके द्वारा स्थापित शांतिनिकेतनसच्चे अर्थों में एक विश्वविद्यालय है. गांधीजी जब पहली बार अंतिम रूप से भारत आये तो अपनी पूरी टोली के साथ सबसे पहले शान्तिनिकेतन में ही जाकर रहे. उनकी एक कलापूर्ण प्रतिमा आज भी वहां के परिसर में सुशोभित है. शान्तिनिकेतन का विधिवत उदघाटन १९२१ में हुआ बाद में गुरुदेव ने ग्राम पुनर्निर्माण के उद्देश्य से वहीँ श्रीनिकेतन नामक समानांतर संस्था भी स्थापित की जो लोक-कल्याण और ग्राम्य-शिक्षा का काम करती थी.

जब मैं स्कूल में पढता था तभी एक बार मेरे पिता ने शिक्षा के लिए मुझे शान्तिनिकेतन में  भेजने की पहल की थी लेकिन पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने न जाने उस वक्त क्यों उन्हें मना किया था. उस वक्त वहां जा सका होता तो शायद मेरे जीवन की दिशा बदल गई होती. लेकिन वहां जाने का अवसर ५५ वर्ष बाद मुझे अप्रत्याशित ढंग से मिला जब वहां के हिंदी भवनमें प्रेमचंदजी की १२५ वीं जयंती मनाई जा रही थी. मेरे मित्र डा. हरिश्चंद्र मिश्र ने प्रेमचंद पर एक आलेख पढने के लिए मुझे वहाँ आमंत्रित किया मार्च, २००५ में. उन्हीं दिनों मेरे द्वारा संपादित पुस्तक प्रेमचंद पत्रों मेंप्रकाशित हुई थी और उसी को आधार बना कर मैंने वहां की संगोष्ठी में पढ़ने के लिए एक आलेख प्रेमचंद और शिवपूजन सहाय की साहित्यिक पत्रकारितापर लिख डाला.

मेरा एक छात्र सुधीर गुप्ता शान्तिनिकेतन में कार्यरत था और उसके आग्रह से मैं उसी के यहाँ ठहरा. संगोष्ठी में हिंदी भवनके मित्रो से साहचर्य का सुख तो मिला ही, संगोष्ठी में मैंने अपना आलेख भी पढ़ा और मिश्रजी और मित्रों का स्नेह तो इतना मिला कि मैं लगभग ४-५ दिन वहां रुक गया. सुधीर ने अपनी मोटर बाइक से मुझे अनेक मित्रों से तो मिलाया ही, वहां आस-पास के गांवों में भी घुमाया. कलकत्ते से लगभग १०० मील की दूरी पर बसा शान्तिनिकेतन का विशाल परिसर अब विश्वभारती केन्द्रीय विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता है. विश्वभारती और श्रीनिकेतन अब दोनों के परिसर एक हैं और चारों और यह परिसर तालाबों और अमराइओ से घिरा हुआ है, दीवालों से यह कहीं भी घिरा हुआ नहीं है. इसके केंद्र में रवीन्द्र भवनगुरुदेव का स्मारक संग्रहालय स्थित है और पूरे परिसर में कला भवन, संगीत भवन, शिल्प सदन, विद्या भवन आदि अनेक शिक्षण-निकाय हैं. रवीन्द्र भवनमें बराबर दर्शकों की कतारें लगी रहती है गुरुदेव के जीवन की एक आकर्षक झांकी देखने के लिए.

शान्तिनिकेतन का रेल स्टेशन लगभग २-३ मील पर बोलपुर में है. शहर का बाज़ार भी वहीँ है जो दिन में १२ से ३ तो ज़रूर पूरा बंद रहता है. बर्दवान से एक ब्रांच लाइन बोलपुर को जोडती है जो हावड़ा से आती है.मैं बर्दवान में उतर कर बस से वहां गया था. वापसी में वहीँ से कलकत्ता चला गया जहाँ मुझे पं.कृष्णबिहारी मिश्रजी से मिलना था. शान्तिनिकेतन से ही उनसे फोन पर बात हुई थी और उन्होंने वापसी में कलकत्ता बुलाया था. कलकत्ता पहुंचकर मैं अपने एक सम्बन्धी के साथ कलकत्ते की एक उपनगरी में स्थित उनके आवास पर जाकर उनसे मिला. उनके कई चित्र लिए और देर तक उनसे अपने पिता के कलकत्ता-प्रवास के संस्मरण सुनता रहा. उन्होंने अपनी सद्यः प्रकाशित पुस्तक कल्पतरु की उत्सव लीलाकी प्रति मुझे भेंट की. मिश्रजी से काफी दिनों से मेरा पत्राचार होता रहा था और इससे पूर्व भी उन्होंने अपना शोध-ग्रन्थ हिंदी पत्रकारिता का इतिहासमुझे भेजा था. कल्पतरुरामकृष्ण परमहंस की ललित काव्यात्मक शैली में लिखी जीवनी है. उसकी प्रारंभिक कुछ पंक्तियों में ही उसका स्वाद मिलता है   दूर स्साला, वेद के नाम पर ताल ठोंकता है. बिलायती बोली में उपनिषद् झाड़ता है..गंवई-गंवार को ये डराते हैं माँ! यह पंडितों की पंचायत है कि पागलों का मेला! ब्रह्म-ब्रह्म चिल्लाते हैं. सूखा तर्क, नीरस बतकही. कितना रस है माँ तेरे नाम में!... यह है बौड़म बालक रामकृष्ण की वाणी! पुस्तक भारतीय ज्ञानपीठ से २००४ में छपी थी, पर आज भी चिर-नवीन है!

पं.कृष्णबिहारी मिश्रजी से जब मैंने गुरुदेव के शान्तिनिकेतन की चर्चा की और उनकी हिंदी अवमानना से सम्बंधित मतवाला’-मंडल वाला संस्मरण सुनाया तो उन्होंने गहरी सांस ली और शान्तिनिकेतन और गुरुदेव के विषय में कई और बातें बतायीं. शांति निकेतन दुबारा जाने का अवसर मुझे अगले साल ही फिर मिला पर हिंदी भवनजाने पर मुझे गुरुदेव की वह बात बराबर याद आई  हिंदी में अभी मेरे पढने योग्य कुछ नहीं है. मै सोचता रहा इससे निराला के ह्रदय को कैसी चोट लगी होगी और वह घाव क्या कभी भर सका होगा?               .  ..          
-          मंगलमूर्ति

चित्र
१. कविता का चित्र  २. अभिनय मुद्रा ३. हिंदी भवन  ४.मुक्ताकाश वर्ग  ५.निकट का एक सरोवर         ६. रवीन्द्रनाथ की प्रतिमा  ७ . प्रेमचंद-जयंती  ८ . पं. कृष्णबिहारी  मिश्र 

(c)आलेख : डा. मंगलमूर्ति

अगला पोस्ट :  कीट्स की एक कविता - 'पतझड़' : १६ जून, २०१५ 









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