Tuesday, March 3, 2015

यादनामा : ७
फणीश्वर नाथ ‘रेणु’

मेरे पिता १९५० में छपरा से पटना आ गए थे. छपरा में वे १० साल रहे थे राजेन्द्र कॉलेज में हिंदी प्रोफेसर के पद पर. बचपन की मेरी यादें छपरा से ही जुडी हैं. सरकार ने १९५० में ही बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् नाम की संस्था की स्थापना की थी और मेरे पिता को उसके संचालक पद पर विशेष रूप से आमंत्रित किया था. तब हमलोग पटना आ गए थे और कदमकुआँ के हिंदी साहित्य समेलन भवन में ही पीछे की ओर रहने लगे थे. परिषद् का दफ्तर भी सम्मलेन में ही आ गया था. पचास के दशक में एक ही परिसर में सम्मेलन और परिषद् – दोनों, बिहार में हिंदी साहित्य का अन्यतम केंद्र बन गए थे. लेकिन यहाँ उस दशक की साहित्यिक-सांस्कृतिक  गतिविधियों की पूरी कहानी लिखना, ‘उग्र’ के मुहावरे में, कभी और गाने कि रागिनी है.

अभी यह बात लगभग ६० साल पहले की है – १९५४-५५ की. तारीख अगस्त २८, स्थान – साइंस कॉलेज के सामने, राजकमल प्रकाशन की नयी दूकान. समारोह – फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ के युगांतरकारी उपन्यास ‘मैला आँचल’ का लोकार्पण, आचार्य शिवपूजन सहाय की अध्यक्षता में. उन्ही के शब्दों में सुनिए:

“आज संध्यासमय श्री फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का नया उपन्यास ‘मैला आँचल’ प्रकाशित हुआ. उसके लिए प्रीतिभोज हुआ. मैं भी गया. भाई बेनीपुरी भी रहे. नेपाल के कांग्रेसी नेता श्रीविशेश्वरप्रसाद कोइराला से भेंट और बातचीत हुई...उपन्यास की भेंट सबको मिली.”

‘मैला आँचल’ ने हिंदी उपन्यास में ‘आंचलिकता’ की अवधारणा को एक नयी  भाषा-शैली में प्रस्तुत किया. लगभग तीस साल पहले शिवपूजन सहाय ने ऐसी ही एक कथा-विधा का सूत्रपात अपना उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ लिख कर किया था. आज उसी कथा-परम्परा में एक अभिनव कथाकृति हिंदी कथा-संसार को समर्पित की जा रही थी जिसमे नेपाल और पूर्णिया के बीच का कथांचल एक अनूठी शैली में चित्रित हुआ था. ‘मैला आँचल’ ने ‘रेणु’ को हिंदी साहित्य के कथा-क्षितिज पर एक नए सूर्योदय की तरह प्रक्षेपित किया. ‘रेणु’ की कहानी पर बनी फिल्म ‘तीसरी कसम’ (१९६६) में ‘रेणु’ के कथा-शिल्प की कोई झलक नहीं दिखी. केवल तीन का तेरह हुआ. राजकपूर ने लेखक ‘रेणु’ और निर्माता गीतकार शैलेन्द्र – दोनों को बुरी  तरह मर्माहत किया. लेकिन जब १९५४ में ‘मैला आँचल’ प्रकाशित हुआ पूरे हिंदी जगत में अप्रत्याशित हलचल मच गयी.

अगले ही साल ‘रेणु’ को ‘मैला आँचल’ पर बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् का ‘नवोदित प्रतिभा’ पुरस्कार मिला. उसी वर्ष (१९५५ में) जगदीशचंद्र माथुर को भी उनके प्रसिद्ध नाटक ‘कोणार्क’ के लिए पुरस्कृत किया गया. मेरे खींचे ये दोनों चित्र उसी अवसर की याद दिलाते हैं. बाद में ‘रेणु’ लम्बे बाल रखने लगे. अपनी बीमारी में कई और साहित्यकारों-कलाकारों की तरह अपनी परिचारिका से प्रेमबद्ध हुए और विवाह किया. कुछ दिन बाद डाकबंगला से एग्जिबिशन रोड के बीच की सड़क पर उन दिनों स्थित ‘इंडिया कॉफ़ी हाउस’ में रोज़ शाम को हमलोगों को ‘रेणु’ देर तक वहां बैठे मिलते, और उनके साथ उनके कई अभिन्न मित्र. हमलोग जब भी वहां जाते उनकी धीमी आवाज़ में चल रही बातचीत सुनते. अपने लम्बे बालों के कारण वे बहुत कुछ पन्तजी जैसे लगते. मैं उन दिनों पटना कॉलेज में पढ़ रहा था.                 




‘रेणु’ हिंदी उपन्यास के कथा-आकाश में एक ज्योतित नक्षत्र हैं. उनको घटा देने पर हिंदी उपन्यास अधूरा ही रहेगा. कथा-साहित्य में ‘आंचलिकता’ की अवधारणा का अभिनव प्रक्षेपण ‘रेणु’ ने किया. लेकिन इस विशिष्ट अवधारणा का वास्तविक सूत्रपात शिवपूजन सहाय की ‘देहाती दुनिया’ से ही हुआ था जो १९२३-२६ के बीच लिखा गया था. यह संभवतः हिंदी का पहला उल्लेखनीय उपन्यास था जिसका पूरा कथानक ग्रामीण परिवेश में ही घटित होता है.
            “रहरी में रहरी पुरान रहरी, डोला के कनिया हमार मेहरी”
आज भी उस उपन्यास की कितनी ही लोकोक्तियाँ लोगों की  ज़ुबान पर सुनाई  देती हैं. प्रेमचंद शिवपूजन सहाय से तेरह साल बड़े थे, और १९२५ तक उनके कई उपन्यास प्रकाशित और ख्यात हो चुके थे. ‘रंगभूमि’ १९२५ में प्रकाशित हुई जिसका सम्पादन शिवपूजन सहाय ने ही किया था. लेकिन ‘गोदान’ (१९३६) प्रेमचंद का पहला उपन्यास था जो पूरी तरह ग्रामीण परिवेश पर आधारित था. उससे पहले के उनके सभी उपन्यास गाँव के उतने ही करीब थे जितना बनारस लमही के. और ‘गोदान’ में भी गाँव की मौजूदगी वैसी नहीं थी जैसी ‘देहाती दुनिया’ में थी.

‘रेणु’ के बाद हिंदी कथा-साहित्य में आंचलिकता की एक बाढ़-सी आ गयी. ‘रेणु’ ने उसमे ग्रामीण बोलचाल की भाषा का विलक्षण प्रयोग किया था. शिवपूजन सहाय ने बाद में आंचलिक भाषा के अंड-बंड प्रयोग की इसी प्रवृत्ति पर एक टिप्पणी लिखी जिसमे उन्होंने नए लेखकों को आगाह किया कि वे आंचलिक भाषा के प्रयोग में कलात्मक संयम बरतें. उनकी कुछ पंक्तियाँ थीं : “आजकल हिंदी संसार में आंचलिक उपन्यासों की जो हवा चली है, वह बहुत अल्हड़ जान पड़ती है....भाषा बड़ी नाज़ुक चीज़ है...कथा-साहित्य की परख भाषा की कसौटी पर पहले होनी चाहिए.”

‘रेणु’ ने हिंदी कथा-साहित्य को आंचलिकता की एक टकसाली भाषा ढाल कर दी. और उससे पहले शिवपूजन सहाय ने आंचलिकता की अवधारणा को ही एक टकसाली रूप अपने उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ में दिया था.

आंचलिकता को यदि हम एक नदी की तरह देखें तो उसकी गंगोत्री प्रेमचंद में फूटती दीखती है जो शिवपूजन सहाय में हरिद्वार-काशी पार करती हुई, सोन-गंडक से मिलती हुई, पटना पहुँच जाती है ‘रेणु’ के ‘मैला आँचल’ में.              

कल ‘रेणु’ की ९४ वीं जयंती है. इस महान दिवस पर इस साहित्यिक त्रिवेणी को हमारा सादर नमन!






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