Sunday, August 31, 2014

फादर कामिल बुल्के 
१९०९-१९८२
                        
 इस पखवारे में अगस्त १७ को फादर कामिल बुल्के की ३२ वीं पुण्यतिथि थी और आज १ सितम्बर को उनकी १०५ वीं जन्मजयंती है. दोनों दिन हमारे लिए  वे स्मरणीय रहेंगे. 

फा. बुल्के एक बेल्जियन इसाई पादरी थे जो १९३५ से भारत में ही  आकर रांची के कैथोलिक  मिशन में मनरेसा हॉउस में  रहने लगे थे. फिर रांची में ही संत जेविअर कॉलेज में हिंदी-संस्कृत के  विभागाध्यक्ष भी रहे. उनको ज्यादातर लोग उनकी ‘अंग्रेज़ी-हिंदी डिक्शनरी’ से जानते हैं. लेकिन हिंदी-साहित्य में उनकी  विशेष ख्याति उनकी पुस्तक ‘रामकथा:उत्पत्ति और विकास’ से है. फ्लेमिश उनकी मातृभाषा थी, और वे  फ्रेंच, जर्मन, लैटिन, ग्रीक आदि कई भाषाओँ के पारंगत विद्वान थे. लेकिन उन्होंने भारत आकर संस्कृत और हिंदी का विशेष अध्ययन किया और अंततः हिंदी को ही अपने लेखन और अभिव्यक्ति की भाषा बना लिया. यहाँ तक कि सम्पूर्ण भारत की एकमात्र संपर्क भाषा के रूप में वे अंग्रेजी का प्रबल विरोध और हिंदी का ज़ोरदार समर्थन करने वाले अग्रणी योद्धा के रूप में माने जाने लगे. उनके अनुसार भारत में संस्कृत महारानी, हिंदी बहुरानी और अंग्रेजी नौकरानीमानी जानी चाहिए. आगामी हिंदी दिवस १४ सितम्बर को भी हमें हिंदी पत्रिकाओं के ब्लागों में उन्हें याद करना चाहिए. मैं उनसे १९६४ में रांची के उनके मिशन-स्थित निवास पर मिला था जिसकी चर्चा मैं आगे करूंगा.

पिछले ९ अगस्त को शिवपूजन सहाय की १२१ वीं जयंती पर हमने सहायजी को भी याद किया था. फा. बुल्के शिवजी के अनन्य प्रशंसक थे. दोनों ही अप्रतिम हिंदी सेवी और हिंदी के प्रबल समर्थक रहे. तुलसी और रामायण के भक्त भी दोनों ही जीवनपर्यंत रहे. शिवजी उनसे १६ वर्ष बड़े थे और जब १९६३ में शिवजी का निधन हुआ तो उन्होंने शिवजी को इन शब्दों में श्रद्धांजलि दी जिससे उनके अपने ही चरित्र की गरिमा द्योतित होती है. फा. बुल्के के शब्द हैं:

मुझे लगभग १५ वर्ष पहले  आचार्य शिवपूजनजी के संपर्क में आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. हर मुलाक़ात से उनके प्रति मेरी श्रद्धा बढती  गयी और अब मेरे हृदय-मंदिर की दीवार पर विनयमूर्ति, सौजन्यावतार, परमपूज्य एवं परमप्रिय शिवपूजनजी का चित्र सदासर्वदा के लिए अंकित है. परलोक में पहुँचने पर मुझे अपनी जन्मभूमि के कम लोगों से मिलने की उत्सुकता रहेगी; क्योंकि वहां के कम लोगों से ही मेरा निकट का संपर्क हो पाया है. अपनी नयी मातृभूमि भारत के बहुत से अच्छे-अच्छे लोगों का मुझे परिचय प्राप्त हो सका है, और उनमे एक शिवपूजनजी हैं. परलोक में पहुँच कर मुझे उनसे मिलकर अनिर्वचनीय आनंद का अनुभव होगा और मैं उनके सामने  नतमस्तक होकर उनको धन्यवाद भी दूंगा की उनसे मैंने जान लिया था कि विनय का वास्तविक स्वरुप क्या है.
         
हिंदी का सवाल

फा.बुल्के की १०५ वीं जयंती के दिन हिंदी के प्रसंग में आज फा.बुल्के को याद करना हिंदी को ही सम्मानित करना है. फा.बुल्के २५ वर्ष की उम्र में भारत आये और यहाँ हिंदी सीख कर उन्होंने हिंदी की जो सेवा की, उसे जो समृद्धि दी, उसके लिए आज हिंदी स्वयं उनके प्रति श्रद्धानत है.

उन्हें हिंदी का धर्मयोद्धा कहा जाता है. किसी हिंदी के लेखक ने उनसे अधिक शिद्दत से हिंदी की हिमायत नहीं की है. उनका दृढ़मत था की अंग्रेजी को बराबर गले लगाकर हम हिंदीवाले ही हिंदी का सबसे अधिक अपमान करते हैं. लेकिन कई भाषाओँ के विद्वान फा.बुल्के हिंदी को भारतीय एकता की भाषा के रूप में देखते थे. हिंदी की अवमानना और अंग्रेजी की हिमायत भारतीय संस्कृति का ही अनुचित अनादर है. हमें अपनी संस्कृति और अपनी भाषा पर गौरव होना चाहिए. भारत के ५% से भी कम लोग - वह भी कामचलाऊ - अंग्रेजी लिख-बोल सकते हैं. बोलचाल की हिंदी-उर्दू का प्रयोग करनेवालों या समझनेवालों की संख्या तो पूरे भारत में आज लगभग ५०-६० प्रतिशत हो चुकी है. रेल के सफ़र में इसका साफ़ पता चलता है. विश्व-भाषा के रूप में भी हिंदी आज तीसरे स्थान पर है. दक्षिण में भी हिंदी के विरोध का मुख्य कारण है उत्तर भारत की अंधी अंग्रेजी-परस्ती और अपने घर में ही हिंदी की घोर अवमानना.

फा.बुल्के को लोग सबसे ज्यादा उनके अंग्रेजी-हिंदी कोश के चलते जानते हैं. उन्होंने इस अतुलनीय कोश को वर्षों की मेहनत के बाद बनाया था, मैं १९६४ में रांची के कैथोलिक मिशन परिसर के मनरेसा हाउस में उनसे उसी दौरान मिला था. वे अहर्निश उसी कार्य में तल्लीन रहते थे पर उस समय मेरे पिता को सादर स्मरण करते हुए वे बड़े स्नेह से मुझसे मिले. वहां उनका बस एक कमरे का काटेज था – सोने-काम करने का एक ही कमरा. एक ओर उनका बिस्तर और सिरहाने लोहे का लम्बा रैक जिस पर पचासों जूते वाले डब्बे सजे थे. कोश के बारे में बताते हुए उन्होंने एक डब्बा निकाल कर मुझको  दिखाया जिसमे लिखे हुए अनेक कार्ड भरे थे जिन सब पर अंग्रेजी शब्द और उनके विभिन्न हिंदी समान्तर अर्थ आदि अंकित थे. काफी देर तक वे मुझको कोश-निर्माण की बारीकियां बताते रहे. मुझे स्पष्ट लगा वे हिंदी के कल्याण के लिए ईश्वर के भेजे एक देवदूत थे. भारतीय अस्मिता की भाषा के रूप में हिंदी की महिमा को अपने रक्त से रेखांकित करने वाले उस महान हिंदी-भक्त से हम हिंदी का सम्मान करना सीखें और अपनी अंधी अंग्रेजी-परस्ती का लबादा उतार फेंकें. यही फा.बुल्के के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी.            





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